Friday, December 5, 2008

चंद्रभान भारद्वाज- परिचय और तीन ग़ज़लें













नाम- चंद्रभान भारद्वाज
जन्म - ४, जनवरी , 1938।
स्थान- गोंमत (अलीगढ) (उ प्र।)
इनके अभी तक चार ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। पगडंडियाँ,शीशे की किरचें ,चिनगारियाँ और हवा आवाज़ देती है. देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में गज़लें प्रकाशित होती रहीं हैं।आकाशवाणी से भी रचनाओं का प्रसारण होता रहा है। ये 1970 से अनवरत रूप से ग़ज़ल लेखन में संलग्न हैं.एक खा़स अंदाज़ की गज़ले आप सब के लिए.

ग़ज़ल 1







हुआ मन साधु का डेरा यहाँ अपना पराया क्या;
समर्पण कर दिया उसको जगत की मोह माया क्या।

धरा आकाश हैं आँगन खिलौना हैं सभी उसके,
सितारे चाँद सूरज आग पानी धूप छाया क्या।

बचाले लाख नज़रों से छिपाले लाख परदों में,
उसे मालूम है तुमने दुराया क्या चुराया क्या.

लिखे हैं ज़िन्दगी ने झूठ के सारे बहीखाते,
बताती है मगर सच मौत खोया और पाया क्या।

नज़र की सिर्फ़ चाहत है मिले दीदार प्रियतम का,
कहाँ है होश अब इतना पिया क्या और खाया क्या।

धधकती प्यार की इस आग में जब कूदकर निकले,
निखर कर हो गए कंचन हमें उसने तपाया क्या।

खड़ा जो बेच कर ईमान 'भारद्वाज' पूछो तो,
कि उसने आत्मा के नाम जोड़ा क्या घटाया क्या।

बहरे-हज़ज सालिम

ग़ज़ल 2










अब खुशी कोई नहीं लगती खुशी तेरे बिना;
ज़िन्दगी लगती नहीं अब ज़िन्दगी तेरे बिना।

रात में भी अब जलाते हम नहीं घर में दिया,
आँख में चुभने लगी है रोशनी तेरे बिना।

बात करते हैं अगर हम और आईना कभी,
आँख पर अक्सर उभर आती नमी तेरे बिना।

चाहते हम क्या हमें भी ख़ुद नहीं मालूम कुछ,
हर समय मन में कसकती फांस सी तेरे बिना।

सेहरा बाँधा समय ने कामयाबी का मगर,
चेहरे पर अक्श उभरे मातमी तेरे बिना।

पूर्ण है आकाश मेरा पूर्ण है मेरी धरा,
पर क्षितिज पर कुछ न कुछ लगती कमी तेरे बिना।

हम भले अब और अपना यह अकेलापन भला,
क्या किसी से दुश्मनी क्या दोस्ती तेरे बिना।

बहरे रमल

ग़ज़ल 3










दर्द की सारी कथाएँ करवटों से पूछ लो,
प्यार की मधुरिम व्यथाएं सिलवटों से पूछ लो।

आपबीती तो कहेगा आँख का काजल स्वयं,
बात पिय की पातियों की पनघटों से पूछ लो।

ज़िन्दगी कितनी गुजारी है प्रतीक्षा में खड़े,
द्वार खिड़की देहरी या चौखटों से पूछ लो।

क्या बताएगा नज़र की उलझनें दर्पण तुम्हें,
पूछना चाहो अगर उलझी लटों से पूछ लो।

चाहती है तो न होगी कैद परदों में कहीं,
लौट आएगी नज़र ख़ुद घूंघटों से पूछ लो।

आप होंगे यह समझ कर दौड़ते हैं द्वार तक,
पांव की आती हुई सब आहटों से पूछ लो।
बहरे-रमल

9 comments:

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

बहुत अच्छी गजल है । कथ्य और िशल्प दोनों दृिष्ट से बेहतर है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-उदूॆ की जमीन से फूटी िहंदी गजल की काव्य धारा-समय हो तो इस लेख को पढें और प्रतिकर्िया भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com

गौतम राजऋषि said...

इन तमाम नायाब गज़लों से आप जिस तरह हम सब का आप परिचय करवाते जाते हैं,सतपाल जी...वो एक पूण्य का काम है.भूखों को भोजन करवाने जैसा पूण्य.
शुक्रिया

योगेन्द्र मौदगिल said...

ख़्याल जी
नमस्कार
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति के लिये साधुवाद
भारद्वाज जी को भी बधाई
मैंने आपकी मेल का उत्तर दे दिया था
साहित्य-शिल्पी पर आपका आलेख बड़ा ही सहज और सरल ढंग से है
विश्वास है ये प्रक्रिया जारी रहेगी
शेष शुभ
-योगेन्द्र मौदगिल

महावीर said...

सतपाल जी
श्री चंद्रबान भारद्वाज जी की ख़ूबसूरत ग़ज़लें पढ़वाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!

Anonymous said...

दर्द की सारी कथाएँ करवटों से पूछ लो,
प्यार की मधुरिम व्यथाएं सिलवटों से पूछ लो
मतले में 'करवटों' और 'सिलवटों' काफ़िये इस्तेमाल किए हैं जिससे निष्कर्ष यह
निकलता है कि क़ाफ़ियों का तुक 'वटों' से बनना चाहिए न कि केवल 'टों' से।
अतः बाक़ी अशा'र में भी हर काफ़िया 'वटों में ही ख़त्म होना चाहिए। उदाहरण के
तौर पर दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल देखिए जिसमें मतले में काफ़िये 'पिघलनी' और
'निकलनी' हैं जिसका मतलब है कि तुक केवल 'नी' न लेकर 'लनी' लिया है जिसका
बाक़ी अशा'र में भी इस्तेमाल किया गया है जैसे 'हिलनी', 'बदलनी', 'जलनी' वगैरह।
श्री राम प्रसाद शर्मा 'महरिष', उर्दू के कुछ माने जाने ग़ज़ल गो और हिंदी-ग़ज़ल के शाइर/कवि
के लेखों से भी यही अंदाज़ा लिया जाता है कि मतले में क़ाफ़िये के शब्द का अंतिम शब्दांश जो
दोनों मिस्रों में कॉमन होता है, उसी से क़ाफ़ियों के तुक बनने चाहिए।
हो सकता है, पिछले ५० सालों में ग़ज़ल में भी हिंदी लिखने के कारण बहुत सी
तबदीलियां हो गई हों जिससे मैं अभी भी अनभिज्ञ हूं।
अंत में मैं इस बात को स्पष्ट कर दूं कि यह ईमेल आलोचना के रूप में नहीं है बल्कि
इसलिए है कि अगर मैं गलत हूं तो अपने को सुधार सकूं।
जहां तक मेरी बात है कि अगर कोई मेरी रचनाओं पर आलोचनात्मक टिप्पणी दे तो
उसे आलोचना के रूप में नहीं, उपहार के रूप में लेता हूं क्योंकि कुछ आगे सीखने,
सुधारने और सही रास्ते के मिलने का अच्छा अवसर मिलता है। इंसान सारी ज़िंदगी
एक विद्यार्थी ही रहता है।
अंत में यदि यह ईमेल किसी भी रूप में या इसके किसी भी अंश से आपकी भावनाओं
को ठेस लगी हो तो मैं हार्दिक रुप से क्षमा चाहता हूं और आगे ध्यान रखूंगा।
सस्नेह
महावीर शर्मा

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai Mahavir ji Namaskar,
Aapka yah kahana sahi hai ki Kafiye ka nirdharan matale men hi ho jana chahiye. Jab matale men 'vaton' ka upyog hua hai to poori ghazal men iska nirvah hona chahiye tha. ghazal men yah ek bareek dosh hai lekin is se ghazal ke kathya aur shilp par koi vishesh fark nahin padta hai atah ise nazarandaaz kar sakate hain.Aapne ghazal ko dhyan se pada aur apni aalochanatmak tippadi bheji iske liye abhari hoon.Ismen dil ko thes pahunchane wali koi baat nahi hai.Aasha hai aap mere uttar se santushtha hong. Aapke uttar ki pratiksha rahegi.
Chandrabhan Bhardwaj.

गौतम राजऋषि said...

महावीर जी की टिप्पणी से बड़ी बारीक बात का पता चला-धन्यवाद

महावीर said...

आदरणीय भाई चन्द्र भान जी
नमस्कार
आज फिर से 'आज की ग़ज़ल' की साईट खोली। आपका उत्तर पढ़ा। मैं १०० प्रतिशत आप की बात से सहमत हूं कि ऐसे दोष ग़ज़ल के प्रवाह,कथ्य, तग़ज़्ज़ुल में कोई रुकावट नहीं डालते। अब समझा हूं कि इस प्रकार की चीज़ें दोष की श्रेणी में नहीं लाई जा सकतीं।
उत्तर में समझ नहीं आता कि क्या कहूं! मैंने तिल का ताड़ बना दिया था और अब स्वयं ही पश्चाताप की दशा में हूं। कितने ही बड़े शाइरों ने अपनी रचनाओं में आपकी ही ही तरह काफ़िये इस्तेमाल किए हैं तो अब सोचता हूं कि क्या वे दिग्गज हस्तियां ग़लत थीं। बस यही कह सकता हूं कि जल्दबाज़ी में और गज़ल की गहराई में झांके बिना ही यह नासमझी कर डाली और वह भी ऐसे व्यक्ति के बारे में जिनका साहित्य-जगत में एक विशेष स्थान है। बस, आप से क्षमा-याचना ही कर सकता हूं।
महावीर शर्मा

chandrabhan bhardwaj said...

Bhai Mahavir ji,namaskar,Aap mere uttar se santusth hue aur mujhe uttar diya iske liye dhanywad.Aadar sahit,
Chandrabhan Bhardwaj.