Monday, April 21, 2008

अमित "रंजन गोरखपुरी" की ग़ज़ल व परिचय












परिचय:
उपनाम- रंजन गोरखपुरी
वस्तविक नाम- अमित रंजन चित्रांशी
जन्म- 17.01.1983, गोरखपुर

शिक्षा- बी. टेक.
पेशा- इंडियन आयल का. लि. में परियोजना अभियंता
लखनवी उर्दू अदब से मुताल्लिक़ शायर हूँ और पिछले 10 वर्षों से कलम की इबादत
कर रहा हूं! जल्द ही अपनी ग़ज़लों का संग्रह प्रकाशित करने का विचार है!

ग़ज़ल

ज़िन्दगी को आज़मा के देखि‌ए,
जश्न है ये मुस्कुरा के देखि‌ए

ज़ख्म काटों के सभी भर जा‌एंगे,
फूल से नज़रें मिला के देखि‌ए

आसमां में चांदनी खिल जा‌एगी,
गेसु‌ओं को सर उठा के देखि‌ए

दूर से ही फ़ैसले अच्छे नही,
फ़ासले थोडे मिटा के देखि‌ए

दर्द-ओ-गम काफ़ूर से हो जा‌एंगे,
मां को सिरहाने बिठा के देखि‌ए

सख्त दीवारें भी पीछे नर्म हैं,
सरहदों के पार जा के देखि‌ए

मज़हबी मुखतार हैं इनको कभी,
जंग-ए-आज़ादी पढा के देखि‌ए

मेहफ़िलों में रौशनी बढ जा‌एगी,
शेर-ए-"रंजन" गुनगुना के देखि‌ए

Faailaatun Faailaatun Faailun

Thursday, April 10, 2008

दीपक गुप्ता जी का परिचय और ग़ज़ल

नाम : दीपक गुप्ता
उम्र: 36 साल

शिक्षा: बी.ए.(1994)

निवास: फ़रीदाबाद (हरियाणा)

पहली किताब 1994 में: सीपियों में बंद मोती.

बेबसाईट : http://www.kavideepakgupta.com/

दीपक जी एक अच्छे हास्य कवि भी हैं.



ग़ज़ल

सबसे अपनापन रखता है
वो इक ऐसा फ़न रखता है

पतझर में जीता है लेकिन
आँखों में सावन रखता है

वो खुद से क्यों डर जाता है

जब आगे दरपन रखता है

वक़्त सभी कुछ सुलझा देगा
क्यों मन में उलझन रखता है

मुझसे झूठे वादे करके
क्यों तू मेरा मन रखता है

दीपक गुप्ता .... 9811153282 ,
बज़न: आठ गुरु.



Wednesday, April 9, 2008

देवी नांगरानी जी की एक ग़ज़ल और परिचय











परिचय:
शिक्षा- बी.ए. अर्ली चाइल्ड हुड, एन. जे. सी. यू.
संप्रति- शिक्षिका, न्यू जर्सी. यू. एस. ए.।
कृतियाँ:
ग़म में भीगी खुशी उड़ जा पंछी (सिंधी गज़ल संग्रह 2004) उड़ जा पंछी ( सिंधी भजन संग्रह 2007)
चराग़े-दिल उड़ जा पंछी ( हिंदी गज़ल संग्रह 2007)

प्रकाशन-
प्रसारण राष्ट्रीय समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं में गीत ग़ज़ल, कहानियों का प्रकाशन। हिंदी, सिंधी और इंग्लिश में नेट पर कई जालघरों में शामिल। 1972 से अध्यापिका होने के नाते पढ़ती पढ़ाती रहीं हूँ, और अब सही मानों में ज़िंदगी की किताब के पन्ने नित नए मुझे एक नया सबक पढ़ा जाते है। कलम तो मात्र इक ज़रिया है, अपने अंदर की भावनाओं को मन के समुद्र की गहराइयों से ऊपर सतह पर लाने का। इसे मैं रब की देन ही मानती हूँ, शायद इसलिए जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमा बन जाता है।

"पढ़ते पढ़ाते भी रही, नादान मैं गँवार
ऐ ज़िंदगी न पढ़ सकी अब तक तेरी किताब।

ई मेल : dnangrani@gmail.com
चिट्ठा- http://nagranidevi.blogspot.com


ग़ज़ल:

देखकर मौसमों के असर रो दिये
सब परिंदे थे बे-बालो-पर रो दिये.

बंद हमको मिले दर-दरीचे सभी
हमको कुछ भी न आया नज़र रो दिये.

काम आया न जब इस ज़माने मे कुछ
देखकर हम तो अपने हुनर रो दिये.

कांच का जिस्म लेकर चले तो मगर
देखकर पत्थरों का नगर रो दिये.

हम भी बैठे थे महफिल में इस आस में
उसने डाली न हम पर नज़र रो दिये.

फासलों ने हमें दूर सा कर दिया
अजनबी- सी हुई वो डगर रो दिये.

बज़न :212, 212, 212,212

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