Monday, June 23, 2008

कृश्न कुमार 'तूर' जी की ग़ज़लें













परिचय:

11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आपने Journalism में डिप्लोमा भी किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.
आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं : आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .
'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.
सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road, Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854
'तूर' साहब ने इस अंक लिये ये दो ग़ज़लें द्विजेन्द्र 'द्विज' को 'आज की ग़ज़ल' के लिए धर्मशाला से फोन पर लिखवाई हैं .लीजिए प्रस्तुत हैं:


कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें








ग़ज़ल १

तेरे ही क़दमों में मरना भी अपना जीना भी
कि तेरा प्यार है दरिया भी और सफ़ीना भी
Tire hee qadamoN meN maranaa bhee apanaa jeenaa bhee
Keh teraa pyaar hai darayaa bhee aur safeenaa bhee

मेरी नज़र में सभी आदमी बराबर हैं
मेरे लिए जो है काशी वही मदीना भी
Miree nazar meM sabhee aadamee baraabar haiN
Mire lie jo hai kaashee vahee madeenaa bhee


तेरी निगाह को इसकी ख़बर नहीं शायद
कि टूट जाता है दिल—सा कोई नगीना भी
Tiree nigaah ko isakee KHabar naheeN shaayad
Ke TooT jaataa hai dil—saa koee nageenaa bhee

बस एक दर्द की मंज़िल है और एक मैं हूँ
कहूँ कि 'तूर'! भला क्या है मेरा जीना भी.
Bas ek dard kI manzil hai aur ek main hooN
kahooN ke 'toor'! bhalaa kyaa hai meraa jeenaa bhee.










ग़ज़ल २
राह—ए—सफ़र से जैसे कोई हमसफ़र गया
साया बदन की क़ैद से निकला तो मर गया
raah—e—safar se jaise koI hamasafar gayaa
saayaa badan kee qaid se nikalaa to mar gayaa

ताबीर जाने कौन से सपने की सच हुई
इक चाँद आज शाम ढले मेरे घर गया
taabeer jaane kaun se sapane kee sach huee
ik chaaNd aaj sham Dhale mere ghar gayaa

थी गर्मी—ए—लहू की उम्मीद ऐसे शख़्स से
इक बर्फ़ की जो सिल मेरे पहलू में धर गया
thee garmee—e—lahoo kee ummeed aise shaKHs se
ik barf kee jo sil mere pahaloo meN dhar gayaa


है छाप उसके रब्त की हर एक शे`र पर
वो तो मेरे ख़याल की तह में उतर गया
hai chhaap usake rabt kee har ek she`r par
vo to mire KHayaal kee tah meN utar gayaa


इन्सान बस ये कहिए कि इक ज़िन्दा लाश है
हर चीज़ मर गई अगर एहसास मर गया.
insaan bas ye kahiye ke ik zindah laash hai
har cheez mar gayee agar ehsaas mar gayaa

इस ख़्वाहिश—ए—बदन ने न रक्खा कहीं का `तूर' !
इक साया मेरे साथ चला मैं जिधर गया.
is KHwaahish—e—badan ne n rakkhaa kaheeN kaa 'toor'!
ik saayaa mere saath chalaa maiN jidhar gayaa.


Bah'r Mazaar'a
Maf—uu—lu Faa -i-laa-tu ma—faa—ii—lu Faa—i—lun 221,2121,1221,212

Thursday, June 12, 2008

श्री सरवर आलम राज़ 'सरवर'















'सरवर'



16 मार्च 1935 को मध्य प्रदेश में जन्मे सरवर आलम राज़ 'सरवर' ने
ए.एम.यू. से बेकलारिएट और सिविल इंजिनियरिंग की और ए.एम.यू.में ही
प्राध्यापक भी बन गये. 1964 में आप उच्च अध्ययन के लिए यू.एस.ए.चले गये.
बतौर सिविल स्ट्र्क्चरल इन्जिनियर आपने विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय इंजिनियरिंग फ़र्मों के लिए अपनी सेवाएँ दीं.
अदबी पृष्ठभूमि वाले परिवार से सम्बन्ध रखने वाले सरवर साहिब उर्दू शायर,
अफ़सानानिगार तो हैं ही, फ़न—ए—शाइरी के अरूज़ के माहिर भी है.
शहर—ए—निगार,रंग—ए—गुलनार,दर्रा—ए—शहवार ,तीसरा हाथ,बाक़ियाते—राज़ इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं.आजकल आप Carrollton (a small town next to Dallas), Texas, USA में रहते हैं और उर्दू ज़बान और अदब को समर्पित हैं.











ग़ज़ल १

सुबह नहीं है शाम नहीं है
दिल को क्यों आराम नहीं है

SubH naheeN hai shaam naheeN hai
dil ko kyoN aaraam naheeN hai?

शाम—ओ—सहर यह रोना ऐ दिल
और कोई क्या काम नहीं है?

shaam-o-saHar yeh ronaa ai dil
aur koyee kyaa kaam naheeN hai?

मुझ को तुझ से शिक्वा ? तौबा!
कुफ़्र है यह इस्लाम नहीं है

mujh ko tujh se shikwah? taubah!
kufr hai yeh Islam naheeN hai!

ज़ख़्म—ए—वफ़ा, आलाम—ए—मुहब्बत
यह तुह्फ़ा बेदाम नहीं है!

zaKhm-e-wafaa, aalaam-e-muHabbat
yeh tuHfah be-daam naheeN hai!

उनकी नज़रें ऐसी बदलीं
मय वो नहीं वो जाम नहीं है


un kee naz^reN aisee badleeN
mai woh naheeN, woh jaam naheeN hai

बात है कोई वर्ना क्यों अब
पहला—सा इकराम नहीं है


baat hai koyee warnah kyoN ab
pehlaa saa ikraam naheeN hai

क़ैद—ए—मुहब्बत,अल्लाह!अल्लाह!
सहल कोई ये काम नहीं है

qaid-e-muHabbat, Allah! Allah!
sehl koyee yeh kaam naheeN hai

राह—ए—वफ़ा ही खुद टेढ़ी है
तुझ पर कुछ इल्ज़ाम नहीं है

raah-e-wafaa hee Khud TeRhee hai
tujh par kuchh ilzaam naheeN hai

अपनी करनी सब भरते हैं
ग़ैर की भरना आम नहीं है

apnee karnee sab bharte haiN
ghair kee bharnaa a'am naheeN hai

दुनियादारी , दुनियासाज़ी!
अपना तो यह काम नहीं है



duniyaa-daaree, duniyaa-saazee!
apnaa to yeh kaam naheeN hai

सरवर! तूने कुछ तो किया है
यूँ ही तो बदनाम नहीं है

:Sarwar:! too ne kuchh to kiyaa hai
yooN hee to badnaam naheeN hai
bahr—e—mutdaarik kaa zihaaf fa.u.lun
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saHar = SubH
aalaam = raNj
mai = sharaab
ikraam = chaahat, i'zzat
duniyaa-saazee = jhooTee baateN banaanaa

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ग़ज़ल २

kahaaN se aa gaYe tum ko nah jaane
bahaane, aur phir aise bahaane!
कहाँ से आ गये तुम को न जाने
बहाने और फिर ऐसे बहाने


zamaanah kyaa bohat kaafee naheeN thaa?
jo tum aaYe ho mujh ko aazmaane!
ज़माना क्या बहुत काफ़ी नहीं था?
जो तुम आये हो मुझ को आज़माने?

hawaa-e-naamuraadee! tere Sadqe
bahaar apnee,nah apne aashyaane!
हवा—ए—नामुरादी तेरे सदक़े
बहार अपनी न अपने आशियाने!

laboN par muhr-e-Khaamoshee lagee hai
diloN meN band haiN kitne fasaane!
लबों पर मुहर—ए—ख़ामोशी लगी है
दिलों में बन्द हैं कितने फ़साने!


nah maut apnee, nah apnee zindagee hai
magar Heele wohee haiN sab puraane!
न मौत अपनी न अपनी ज़िन्दगी है
मगर हीले वही हैं सब पुराने



yeh duniyaa, be-wafaa, be-mehr duniyaa!
yeh roz-o-shab, yeh is ke taane-baane!
यह दुनिया बेवफ़ा,बे—मेह्र दुनिया
ये रोज़—ओ—शब ये इसके ताने—बाने!


zamaane ne lagaayee aisee Thokar
hamaare hosh aaYe haiN Thikaane!
ज़माने ने लगाई ऐसी ठोकर
हमारे होश आये हैं ठिकाने!



kahaaN tak tum karo ge fikr-e-duniyaa?
chale aa,o kabhee tum bhee manaane!
कहाँ तक तुम करोगे फ़िक्र—ए—दुनिया
चले आओ कभी तुम भी मनाने


judaa sab se miraa Zauq-e-t^lab hai
nah shor-e-giryah, nay aah-o-fuGhaane!
जुदा जबसे मिरा ज़ौक़—ए—तलब है
न शोर—ए—गिर्या,न आह—ओ—फ़ुग़ाने

nah woh saaqee, nah woh maiKhaanah baaqee
kahaaN aaKhir gaYe agle zamaane?
न वो साक़ी न वो मयख़ाना बाक़ी
कहाँ आखिर गये अगले ज़माने?


Zaraa dekho to Dar kar bijliyoN se
jalaa Daale Khud apne aashyaane!
ज़रा देखो तो डर कर बिजलियों से
जला डाले ख़ुद अपने आशियाने

mileN ge ek din "Sarwar" se jaa kar
agar taufeeq dee ham ko Khudaa ne!
मिलेंगे एक दिन 'सरवर' से जाकर
अगर तौफ़ी॔क़ दी हमको खुदा ने.
Bah'r Hazaj Musaddas Mahzuuf:

Ma - faa - ii - lun Ma - faa - ii - lun Fa - uu - lun

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hawaa-e-naamuraadee = naa-ummeedee kee hawaa
Sadqe = wajh se
muhr-e-Khaamoshee = chup rehne kee muhr yaa bandish
be-mehr = pyaar nah karne waalee
roz-o-shab = din raat
Zauq-e-t^alab = maaNgne kaa andaaz
shor-e-giryah = rone-dhone kaa shor
aah-o-fuGhaane = aaheN bharnaa aur shikaayat karnaa
aashyaane = ghoNsle
taufeeq = himmat



Thursday, June 5, 2008

श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' जी की ग़ज़लें












परिचय

5 अप्रैल, 1938 को ज्वालामुखी (हिमाचल प्रदेश) में जन्मे ,एम.ए. तक शिक्षा प्राप्त, श्री सुरेश चन्द्र 'शौक़' ए.जी. आफ़िस से बतौर सीनियर आडिट आफ़िसर रिटायर होकर आजकल शिमला में रहते हैं. तेरी ख़ुश्बू में बसे ख़त... के सुप्रसिद्ध शायर श्री राजेन्द्र नाथ रहबर के शब्दों में: " 'शौक़' साहिब की शायरी किसी फ़क़ीर द्वारा माँगी गई दुआ की तरह है जो हर हाल में क़बूल हो कर रहती है. "
* शौक़' साहिब का ग़ज़ल संग्रह "आँच" बहुत लोकप्रिय हुआ है.
फोन: 98160—07665
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शौक़ साहिब की दो ग़ज़लें









1.

इतने भी तन्हा थे दिल के कब दरवाज़े
इक दस्तक को तरस रहे हैं अब दरवाज़े

कोई जा कर किससे अपना दु:ख—सुख बाँटे
कौन खुले रखता है दिल के अब दरवाज़े

अहले—सियासत ने कैसा तामीर किया घर
कोना—कोना बेहंगम, बेढब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी था देहात में सुख का
लोग खुले रखते थे घर के सब दरवाज़े

एक ज़माना यह भी है ग़ैरों के डर का
दस्तक पर भी खुलते नहीं हैं अब दरवाज़े

ख़लवत में भी दिल की बात न दिल से कहना
दीवारें रखती हैं कान और लब दरवाज़े

फ़रियादी अब लाख हिलाएँ ज़ंजीरों को
आज के शाहों के कब खुलते हैं दरवाज़े

शहरों में घर बंगले बेशक आली—शाँ हैं
लेकिन रूखे फीके बे—हिस सब दरवाज़े

कोई भी एहसास का झोंका लौट न जाए
'शौक़', खुले रखता हूँ दिल के सब दरवाज़े.

2 2 x 6

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बेहंगम=बेडौल; ख़लवत=एकान्त; बेहिस=स्तब्ध,सुन्न

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ग़ज़ल:

बग़ैर पूछे जो अपनी सफ़ाई देता है
नहीं भी हो तो भी मुजरिम दिखाई देता है

जो इक़्तिदार की कुर्सी पे जलवा फ़रमा हैं
न जाने क्यों उन्हें ऊँचा सुनाई देता है

तिरे ज़मीर का आइना गर सलामत है
तो देख उसमें तुझे क्या दिखाई देता है

मिरा नसीब कि ग़म तो अता हुआ, वरना
किसी को तिरा दस्ते-हिनाई देता है

वो तकता रहता है हर वक़्त आसमाँ की तरफ़
खला में जाने उसे क्या दिखाई देता है

करोड़ों लोग हैं दुनिया में यूँ तो कहने को
कहीं –कहीं कोई कोई इन्साँ दिखाई देता है

बहुत ज़ियादा जहाँ रौशनी ख़िरद की हो
निगाहे-दिल को वहाँ कम सुझाई देता है

तज़ाद ज़ाहिरो—बातिन में उसके कुछ भी नहीं
है 'शौक़' वैसा ही जैसा दिखाई देता है.

1212,1122,1212,112 (mujtas kaa zihaf)

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इक़्तिदार=सत्ता ; दस्ते—हिनाई=मेंहदी रचा हाथ; ख़ला=शून्य; ख़िरद=बुद्धि; तज़ाद=प्रतिकूलता ज़ाहिरो—बातिन=प्रत्यक्ष रूप तथा अंत:करण

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