नसीम भरतपु्री जो कि मिर्ज़ा दा़ग के प्रिय शाग्रिद थे उन्हीं की ग़ज़ल से ये मिसरा लिया था.उस ग़ज़ल कुछ अशआर पेश हैं:
नहीं करते उन्हें कुछ देर लगती है न हाँ करते
कभी इन्का़र चुटकी मे कभी इक़रार चुटकी मे
लिया था इस ज़मीं मे इम्तिहाने-तबअ यारों ने
किये मौजूं ये हमने ए नसीम अशआर चुटकी में.
इन तरही ग़ज़लों का पहला भाग पेश कर रहे हैं दूसरा जल्द ही प्रकाशित करेंगे.पेश है 10 तरही ग़ज़लें :
मिसरा -ए-तरह : "कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में"
सबसे पहले पेश है ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर(सऊदी अरब)की ग़ज़ल :
किए हैं आज मौज़ूँ मैंने कुछ अशआर चुटकी में
दिली जज़बात का होने लगा इज़हार चुटकी में
कभी बरसों गुज़र जाता है देखे प्यार का मौसम
कभी आ जाती है फ़स्ले-बहारे-प्यार चुटकी में
मसीहा बन के तुम आ जाओ जो ख़्वाबों की दुनिया में
*शफ़ा पा जाएगा मेरा दिले-बीमार चुटकी में
वह शोख़ी याद है जाने तमन्ना तुमसे मिलने की
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
किया है *किश्ते दिल की *आबयारी अश्क से बरसों
नहीं होता है कोई भी चमन गुलज़ार चुटकी में
नहीं है साथ कोई मुफलिसी में पर यकीं जानो
जो माल आया तो बन जाएँगे कितने यार चुटकी में
तुम्हारी बेरुख़ी पर हो गया बेचैन पल भर में
मगर फिर गुफ़्तगू से हो गया *सरशार चुटकी में
कहीं टूटे न यह दिल आइना है यह मोहब्बत का
सो उसकी बात का नय्यर किया इक़रार चुटकी में
*शफ़ा पा जाएगा-अच्छा हो जाएगा,*किश्ते दिल-दिल की खेती,आबयारी-सिंचाई,सरशार-खुश
अब पेश है पुर्णिमा वर्मन की ये ग़ज़ल:
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
कभी सर्दी ,कभी गर्मी, कभी बौछार चुटकी में
ख़ुदाया कौन-से बाटों से मुझको तौलता है तू
कभी तोला, कभी माशा, कभी संसार चुटकी में
कभी ऊपर ,कभी नीचे ,कभी गोते लगाता सा
अजब बाज़ार के हालात हैं लाचार चुटकी में
ख़बर इतनी न थी संगींन अपने होश उड़ जाते
लगाई आग ठंडा हो गया अख़बार चुटकी में
न चूड़ी है, न कंगन है, न पायल है ,न हैं घुँघरू
मगर बजती रही फिर भी कोई झनकार चुटकी में
मेरे प्रिय मित्र नवनीत शर्मा की ये ग़ज़ल:
बदल दी चोट खाए बाज़ुओं ने धार चुटकी में
छिना था मेरे हाथों से जहाँ पतवार चुटकी में
उन्हें तुमने कहा था एक दिन बेकार चुटकी में
चढ़े आते हैं टी.वी. पे जो अब फ़नकार चुटकी में
जगाई याद की तूने अजब झंकार चुटकी में
लो मेरे दिल के फिर से बढ़ गए आज़ार चुटकी में
मोहब्बत, चैन या एतमाद की मंजिल नहीं मुश्किल
मेरे कदमों को तू बख़्शे अगर रफ़्तार् चुटकी में
न माथे पर शिकन कोई, न दिल में हूक, हैरत है
यही हैं लोग क्या, जिनका छिना घर-बार चुटकी में
यह दुनिया हाट हो जैसे, है बिकवाली ज़रूरत की
कि सर पर से हथेली ले गई दस्तार चुटकी में
अजब उलझन का ये मौसम कि जानम भी सियासी है
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इक़रार चुटकी में
सुनो, जागो, उठो, देखो कि बरसों बाद मौका है
अभी तुमको गिराने हैं कई सरदार चुटकी में
'नहीं' कहना हुनर ऐसा जिसे हम सीख न पाए
जो हमसे खाल भी माँगी, कहा, 'सरकार! चुटकी में'
अकेले जूझना है जीस्त नदिया, मौत सागर से
यहाँ कोई नहीं ले जाए जो उस पार चुटकी में
है बहरो-वज़्न कैसा ये तो द्विज उस्ताद ही जाने
कहा सतपाल ने तो कह दिए अश्आर चुटकी में
चंद्रभान भारद्वाज की ये ग़ज़ल :
सुलझ जाते हैं उलझे प्रश्न कितनी बार चुटकी में;
सफलता पर नहीं मिलती किसी को यार चुटकी में।
कभी होता नहीं तो ज़िन्दगी भर तक नहीं होता,
कभी होता किसी की बात का एतबार चुटकी में।
कई मझधार में डूबे, कई डूबे किनारे पर,
हमारी नाव पर उसने लगाई पार चुटकी में।
उठी टेढ़ी नज़र तो छा गई माहौल में चुप्पी,
मधुर मुसकान से महफिल हुई गुलज़ार चुटकी में।
पड़ा इक इस किनारे पर, पड़ा इक उस किनारे पर,
अचानक जोड़ जाता वक्त टूटे तार चुटकी में।
करें भी तो करें कैसे भरोसा दोमुहों पर हम,
कभी तो प्यार चुटकी में, कभी तकरार चुटकी में।
हुआ है प्यार 'भारद्वाज' अब इक खेल गुड़ियों का,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी की ग़ज़ल
बदलता रहता है हर दम मिज़ाजे-यार चुटकी में ,
कभी इन्कार चुटकी मे, कभी इक़रार चुटकी मे
कहीं ऐसा न हो हो जाए वह बेज़ार चुटकी में
तुम उस से कर रहे हो दिल्लगी बेकार चुटकी में
दिले नादां ठहर, अच्छी नहीं यह तेरी बेताबी
नहीं होती है राह-ए-वस्ल यूँ हमवार चुटकी में
अगर चशमे -इनायत हो गई उसकी तो दम भर में
वह रख देगा बदल कर तेरा हाल-ए-ज़ार चुटकी में
अगर मर्ज़ी नहीं उसकी तो तुम कुछ कर नहीं सकते
अगर चाहे तो हो जाएगा बेड़ा पार चुटकी में
बज़ाहिर नर्म दिल है ,वो कभी ऐसा भी होता है
वो हो जाता है अकसर बर-सरे पैकार चुटकी में
कभी भूले से भी करना न तुम उसकी दिल आज़ारी
बदल जाती है उसकी शोख़ी -ए -गुफ़्तार चुटकी में
सँभल कर सब्र का तुम लेना उसके इम्तिहाँ वरना
पलट कर वो कहीं कर दे न तुम पर वार चुटकी में
हमेशा याद रखना वो बहुत हस्सास है 'बर्क़ी'
अगर ख़ुश है तो हो जाएगा वो तैयार चुटकी में
मेरे प्रिय मित्र विजय धीमान(हमीरपुर से):
ग़ज़ल
जो आँखें बंद कर लो तो मिटे संसार चुटकी में
जो आँखे खोल कर देखो तो सब साकार चुटकी में
कभी है प्यार चुटकी में , कभी इनकार चुटकी में
हमारी जीत चुटकी में, हमारी हार चुटकी में
हमारा दिल निकलता है , हमारी जान जाती है
कभी इन्कार चुटकी में ,कभी इकरार चुटकी में
चली जब पेट पर छुरियाँ हुआ मालूम तब हमको
कि साज़िश थी बड़ी ग़हरी घटी जो यार चुटकी में
तुम्हारी जिन अदाओं पर हमारी ज़िंदगी कुरबां
मरे है उन अदाओं पर सकल संसार चुटकी में
जो मीठे बोल हों साथी तो रस घुलता है आलम में
अखरते बोल पर भैया तने तलवार चुटकी में
कभी हँसना, कभी रोना ,कभी पाना, कभी खोना
ये जीवन एक उलझन है न सुलझे यार चुटकी में
जोगेश्वर गर्ग(राजस्थान से)
ग़ज़ल
बदलता है भला ऐसे कभी व्यवहार चुटकी में
लड़ो भी एक पल में और कर लो प्यार चुटकी में
दिलों का मेल होना और वह भी ज़िंदगी भर का
नहीं होता कभी इतना बड़ा व्यापार चुटकी में
सुना मैंने तुम्हारे शह्र की ऐसी रिवायत है
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इकरार चुटकी में
बदलने का अगर है शौक़ तो बदलो ज़रा मुझको
बदलते हो वतन मे जिस तरह सरकार चुटकी में
कहो नाराज़ क्यों हो पूछता है आज "जोगेश्वर"
उसे भी तो किसी दिन तुम करो स्वीकार चुटकी में
दिगम्बर नासवा की ग़ज़ल
चले अब छोड़ कर तेरा ये हम संसार चुटकी में
कि जोगी बन गए हम छोड़ कर घर बार चुटकी में
समझ पाया नहीं मैं अब तलक तेरे इरादों को
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
तुम्हारे प्यार के जादू ने कैसा खेल खेला है
अभी आया था मंगल, आ गया इतवार चुटकी में
वो जिसके हाथ में इन्साफ़ के मंदिर की चाबी है
वही कातिल है बैठा है जो बन अवतार चुटकी में
ये घर का राज़ है तुम दफ़्न सीने मे करो इसको
नहीं तो टूट जायेंगे दरो-दीवार चुटकी में
किसी बादल के टुकड़े पर लगे हैं पंख खुशियों के
कहीं बरसेगा बन के गीत की झंकार चुटकी में
ग़ज़ल : मोहम्मद वलीउल्लाह वली
सितम कैसा यह करते हो मेरे सरकार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी
हुई जिस दम किसी से मेरी आँखें चार चुटकी में
ख़िज़ाँ दीदह मेरा दिल हो गया गुलज़ार चुटकी में
न जाने क्या अजब अंदाज़ है उशवा तराज़ों का
कभी तो वाद-ए-उलफ़त कभी तकरार चुटकी में
तुम्हारे इश्क़ ने मुझको बना डाला है सौदाई
तुम्हीं करते हो यूँ मुझको ज़लीलो- ख़्वार चुटकी में
मेरे हाथों में है बस इक इसी उम्मीद का दामन
बदल देती है क़िस्मत इक निगाह-ए-यार चुटकी में
जनाबे- हज़रते -वाइज़ हक़ीक़त से हैं नावाक़िफ
मैं दीवाना हूँ मैं जाउँगा सूए-दार चुटकी में
*शेफाअत जिस को हो उनको मुयस्सर रोज़-ए-महशर में
वली बन जाएगा जन्नत का वह हक़दार चुटकी में
उशवा तराज़ों- नाज़ नख़रा करने वाले,शेफाअत-सिफारिश,पैरवी
ग़ज़ल :मुनीर अरमान नसीमी(उडीसा)
पिलाया उसने जब से शर्बत-ए- दीदार चुटकी में
नुमायाँ है तभी से इश्क़ के आसार चुटकी में
*ख़िज़ाँ- दीदह था इस से पहले मेरा गुलशने हस्ती
मेरा बाग़-ए-तमन्ना हो गया गुलज़ार चुटकी में
किया अर्ज़े तमन्ना मैंने जब वह हँस के यह बोला
नहीं करते किसी से इश्क़ का इज़हार चुटकी में
तुम्हारी इक निगाहे नाज़ के सदक़े मैं ऐ जानाँ !
हुए हैं *ख़म न जाने कितने ही सरदार चुटकी में
गया वह दौर जब फ़रहाद चट्टानों से लड़ ता था
मगर अब चाहते हैं सब यह पा लें प्यार चुटकी में
हमारे रहनुमाओं के अजब *अतवार हैं अरमाँ
कभी इन्कार चुटकी में, कभी इकरार चुटकी में
अतवार-तौर-तरीके ,ख़िज़ाँ दीदह-मुर्झाए हुए, ख़म-झुकना
Sunday, March 29, 2009
Saturday, March 21, 2009
जगदीश रावतानी की एक ग़ज़ल
1956 मे जन्मे जगदीश रावतानी प्रसिद्व कवि हैं और इन्होंने छोटे पर्दे पर कई धारावाहिकों मे अभिनय भी किया है.कई प्रतिभाओं के मालिक हैं जगदीश जी. आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए उनकी एक ग़ज़ल पेश है:
ग़ज़ल
गो मैं तेरे जहाँ मैं ख़ुशी खोजता रहा
लेकिन ग़मों-अलम से सदा आशना रहा
हर कोई आरजू में कि छू ले वो आसमां
इक दूसरे के पंख मगर नोचता रहा
यादों मैं तेरे अक्स का पैकर तराश कर
आईना रख के सामने मैं जागता रहा
कैसे किसी के दिल में खिलाता वो कोई गुल
जो नफरतों के बीज सदा बीजता रहा
आती नज़र भी क्यूं मुझे मंजिल की रौशनी
छोडे हुए मैं नक्शे कदम देखता रहा
सच है कि मैं किसी से मुहव्बत न कर सका
ता उम्र प्रेम ग्रंथ मगर बांचता रहा
बहरे-मज़ारिअ
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
शायर का पता
BS-19 Shiva Enclave, A/4 Pashchim Vihar, New Delhi -110063
Ph. 011-25252635,98111-50638
jagdishrawtani@rediffmail.com
Sunday, March 15, 2009
तरही ग़ज़लें
द्विज जी के परामर्शानुसार हम आज की ग़ज़ल पर तरही ग़ज़लों का प्रकाशन करेंगे. महीने मे एक बार तरही ग़ज़लें प्रकाशित की जायेंगी. इसमें नये और स्थापित सभी शायर हिस्सा लेंगे. इस बार हम ने दा़ग़ के शागिर्द नसीम का ये मिसरा चुना है. आप ग़ज़ल कहें और ज़ल्द भेजें.
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इक़रार चुटकी में.
काफ़िया : इनकार
रदीफ़ : चुटकी में
और बहर : हज़ज
मुफ़ाईलुन X 4
1222 1222 1222 1222
आप अपनी ग़ज़लें २० दिन के अंदर हमें भेजें लेकिन आप अपनी सहमती ज़रूर भेज दें कि आप भाग ले रहे हैं या नहीं.हर कोई ग़ज़ल भेज सकता है बशर्ते कि बहर-वज़्न सही हो. हर तरह से सही ग़ज़लें ही प्रकाशित की जायेंगी.
सादर
ख्याल
satpalg.bhatia@gmail.com
कभी इन्कार चुटकी में , कभी इक़रार चुटकी में.
काफ़िया : इनकार
रदीफ़ : चुटकी में
और बहर : हज़ज
मुफ़ाईलुन X 4
1222 1222 1222 1222
आप अपनी ग़ज़लें २० दिन के अंदर हमें भेजें लेकिन आप अपनी सहमती ज़रूर भेज दें कि आप भाग ले रहे हैं या नहीं.हर कोई ग़ज़ल भेज सकता है बशर्ते कि बहर-वज़्न सही हो. हर तरह से सही ग़ज़लें ही प्रकाशित की जायेंगी.
सादर
ख्याल
satpalg.bhatia@gmail.com
Tuesday, March 10, 2009
होली विशेष
दिल की टहनी पे पत्तियों जैसी
शायरी बहती नद्दियों जैसी
(द्विज)
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस होली विशेष अंक का आगा़ज़ करते हैं.आज की ग़ज़ल के सभी पाठकों को हमारी तरफ़ से होली मुबारक और सभी शायरों का धन्यवाद जिन्होंने अपना कलाम हमे भेजा.आज हम बर्क़ी साहेब के पिता स्व:श्री रहमत इलाही बर्क़ आज़मी के कलाम से शुरूआत करेंगे.लेकिन पहले देखते हैं होली के बारे मे मीर ने क्या कहा है:
आओ साकी, शराब नोश करें
शोर-सा है, जहाँ में गोश करें
आओ साकी बहार फिर आई
होली में कितनी शादियाँ लाई
अब देखिए नज़ीर क्या कहते हैं:
गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो
कपड़ों पर रंग की छींटों से खुशरंग अजब गुलकारी हो
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
तब देख नजारे होली के।
रहमत इलाही बर्क़ आज़मी
पहन के आया है फूलों का हार होली में
वह रशक-ए गुल है मुजस्सम बहार होली में
कली कली पे है दूना निखार होली में
चमन चमन है बना लालहज़ार होली मे
बसा है बास से फूलों की गुलशन-ए- आलम
नसीम फिरती है मसतानहवार होली में
तमाम अहल-ए-चमन के दिलों को मोह लिया
उरूस-ए-सब्ज़ह ने कर के सिंगार होली में
महक रहा है रयाज़-ए- जहाँ का हर गोशा
फज़ा-ए- दह्र है सब मुशकबार होली में
ज़मान-ए-भर में मुसर्रत की लह्र दौड गई
रहा न कोई कहीँ सोगवार होली में
ग़मो अलम का निशाँ तक न रह गया बाक़ी
ख़ुशी से सबने किया सब को प्यार होली में
यह धूम धाम है क्यों आ तुझे बताऊँ मै
कि तू हो जिसके सबब होशियार होली में
जले न भक्त प्रहलाद जल गई होलिका
खुदा रसीदह से पाया न पार होली में
वह अपने भक्तों की करता है इस तरह रक्षा
अयाँ है क़ुदरत-ए- परवरदिगार होली में
भरा था नशश्ए नख़वत से जो हिरणकश्यप
हुआ बहुत ही ज़लील और ख़्वार होली में
हमारे पेशे नज़र ह वही समां अब तक
मना रहे हैँ वही यादगार होली में
ख़शी बजा है मगर ऐ मेरे अज़ीज़ न खा
फरेबे हस्तिए नापायदार होली में
पछाड हिर्स को मर्दानगी है गर तुझमें
ग़ुरूर-ए-नफ्स को तू अपने मार होली में
बुराइयों को मिटाने का अहद कर इस दिन
सुधर ख़ुद और जहां को सुधार होली में
सुना उन्हेँ जो हैं फिसको फुजूर के आदी
कलाम-ए- बर्क़-ए हक़ीक़तनेगार होली में
देवी नांगरानी जी ने भी गुलाल भेजा है.
ग़ज़ल
झूमकर नाचकर गीत गाओ
सात रंगों से जीवन सजाओ
पर्व पावन है होली का आया
भाईचारे से इसको मनाओ
हर तरफ़ शबनमी नूर छलके
आसमाँ को ज़मीं पर ले आओ
लाल, पीले, हरे, नीले चहरे
प्यार का रंग उनमें मिलाओ
देवी चहरे हैं रौशन सभी के
दीप विश्वास के सब जलाओ
देव मणि पांडेय जी :
दूर दूर तक खिली हुई है ख़ुशियों की रंगोली ,
आप सभी को बहुत मुबारक बहुत मुबारक होली
प्राण शर्मा जी भी परदेस से आए हैं:
इक-दूजे को क्यों न लुभाएँ प्यारी-प्यारी होली में
सब नाचें ,झूमें मुस्काएं प्यारी- प्यारी होली में
अपना- अपना मन बहलायें प्यारी-प्यारी होली में
बच्चे- बूढे हँसे --हंसाएं प्यारी -प्यारी होली में
ऐसा शोख नज़ारा या रब ज़न्नत में भी कहाँ होगा
रंगों के घन उड़ते जाएँ प्यारी- प्यारी होली में
प्यारी-प्यारी होली है तो प्यारी- प्यारी रहने दो
लोगों के मन खिल-खिल जाएँ प्यारी-प्यारी होली में
लाल ,गुलाबी,नीले,पीले चेहरों के क्या कहने हैं
सब के सब ही "प्राण" सुहाएँ प्यारी- प्यारी होली में
चंद्रभान भारद्वाज जी की ग़ज़लें .
1.
आओ तो आना होली पर;
देते सब ताना होली पर।
तन की आग विरह की पीड़ा,
क्या होती जाना होली पर।
मन का भेद मर्म आंखों का,
हमने पहचाना होली पर।
पढ़ पढ़ पाती मन बहलाया,
मुश्किल बहलाना होली पर।
झूठे निकले अब तक वादे,
अब मत झुठलाना होली पर।
लिक्खा है भविष्य फल में भी,
प्रिय का सुख पाना होली पर।
तुम होगे तो हो जायेगा ,
आंगन बरसाना होली पर।
(2)
आई सुघड़ सहेली होली,
बनकर एक पहेली होली।
रंग गुलाल इत्र के बदले,
माँगे आज हथेली होली।
छप्पन भोगों को तज आई,
खाने गुड़ की ढेली होली।
हम तो छप्पर के कच्चे घर,
शेखावटी हवेली होली।
खुद गहरे रंगों में डूबी,
मुझ को देख अकेली होली।
पूरी उम्र लड़े यादों से,
कर दो दिन अठखॅली होली।
तन बरसाना मन वृन्दावन,
भीगी नारि नवॅली होली।
जगदीश रावतानी
भीगे तन -मन और चोली
हिंदू मुस्लिम सब की होली.
छोड़ भाषा मज़हबी ये
बोलें हम रंगों की बोली.
चल पड़ें हम साथ मिलकर
जैसे दीवानों की टोली.
तू क्यों होती लाल पीली
ये है होली ये है होली
तू भी रंग जा ऐसे जैसे
मीरा थी कान्हा की हो ली
पुर्णिमा बर्मन जी ने भी गुलाल भेजा है:
हवा-हवा केसर उड़ा टेसू बरसा देह
बातों मे किलकारियाँ मन मे मीठा नेह
शहर रंग से भर गया चेहरों पर उल्लास
गली-गली मे टोलियाँ बांटें हास-उलास
योगेन्द्र मौदगिल जी की झूमती ग़ज़ल
झूम रहा संसार, फाग की मस्ती में.
रंगों की बौछार, फाग की मस्ती में.
सारे लंबरदार, फाग की मस्ती में.
बूढ़े-बच्चे-नार, फाग की मस्ती में.
गले मिले जुम्मन चाचा, हरिया काका,
भूले मन की खार फाग की मस्ती में.
जाने कैसी भांग पिला दी साली ने,
बीवी दिखती चार, फाग की मस्ती में.
आंगन में उट्ठी जो बातों-बातों में,
तोड़ें वो दीवार, फाग की मस्ती में.
चाचा चरतु चिलम चढ़ा कर चांद चढ़े,
चाची भी तैयार, फाग की मस्ती में.
इतनी चमचम, इतनी गुझिया खा डाली,
हुए पेट बेकार फाग की मस्ती में.
काली करतूतों को बक्से में धर कर,
गली में आजा यार फाग की मस्ती में.
ननदों ने भी पकड़, भाभी के भैय्या को,
दी पिचकारी मार, फाग की मस्ती में.
कईं तिलंगे खड़े चौंक में भांप रहे,
पायल की झंकार, फाग की मस्ती में.
गुब्बारे दर गुब्बारे दर गुब्बारे.......
हाय हाय सित्कार, फाग की मस्ती में.
होली है अनुबंधों की, प्रतिबंध नहीं,
सब का बेड़ा पार, फाग की मस्ती में.
चिड़िया ने भी चिड़े को फ्लाइंग-किस मारी,
दोनों पंख पसार फाग की मस्ती में.
कीचड़ रक्खें दूर 'मौदगिल' रंगों से,
भली करे करतार, फाग की मस्ती में.
नवनीत जी :
लाल, भगवा, या हरा, नीला कहो, सबके सब कबके सियासी हो गए
जो बचें हैं रंग अब बाजार में आओ उनके साथ होली खेल लें।
चाँद शुक्ला जी की ग़ज़ल
ग़ज़ल
रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके
आँख का कजरा बह जाता है रोते-रोते
खाली नैनों संग करे क्या गोरी जी के
फूलों से दिल को जितने भी घाव मिले हैं
रफ़ू किया है काँटों की सुई से सी के
सब कुछ होते हुए तक़ल्लुफ़ मत करना तुम
हम तो अपने घर ही से आए हैं पी के
तेरी माँग के ''चाँद'' सितारे रहें सलामत
जलते रहें चिराग़ तुम्हारे घर में घी के
डा अहमद अली बर्क़ी
आई होली ख़ुशी का ले के पयाम
आप सब दोस्तों को मेरा सलाम
सब हैँ सरशार कैफो मस्ती मेँ
आज की है बहुत हसीँ यह शाम
सब रहें ख़ुश यूँ ही दुआ है मेरी
हर कोई दूसरोँ के आए काम
भाईचारे की हो फ़जा़ ऐसी
बादा-ए इश्क़ का पिएँ सब जाम
हो न तफरीक़ कोई मज़हब की
जश्न की यह फ़ज़ा हो हर सू आम
अम्न और शान्ती का हो माहोल
जंग का कोई भी न ले अब नाम
रंग मे अब पडे न कोई भंग
सब करें एक दूसरे को सलाम
रहें मिल जुल के लोग आपस में
मेरा अहमद अली यही है पयाम
द्विजेन्द्र द्विज
पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ है, पी कहाँ’
मन-पपीहा भी यही तो कह रहा तुझ को पुकार
पर्वतों पे रक़्स करते बादलों के कारवाँ
बज उठा है जलतरंग अब है फुहारों पर फुहार
मेरी एक ग़ज़ल आप सब के लिए:
बात छोटी सी है पर हम आज तक समझे नही
दिल के कहने पर कभी भी फ़ैसले करते नहीं
सुर्ख़ रुख़्सारों पे हमने जब लगाया था गुलाल
दौड़कर छत्त पे चले जाना तेरा भूले नहीं
हार कुंडल , लाल बिंदिया , लाल जोड़े मे थे वो
मेरे चेहरे की सफ़ेदी वो मगर समझे नहीं
हमने क्या-क्या ख़्वाब देखे थे इसी दिन के लिए
आज जब होली है तो वो घर से ही निकले नहीं
अब के है बारूद की बू चार -सू फैली हुई
खौफ़ फैला हर जगह आसार कुछ अच्छे नहीं.
उफ़ ! लड़कपन की वो रंगीनी न तुम पूछो `ख़याल'
तितलियों के रंग अब तक हाथ से छूटे नहीं
***उरूस-ए-सब्ज़ह-सब्ज़ की दुल्हन,रयाज़-ए- जहाँ -बाग़-ए जहाँ , फज़ा-ए- दह्र -ज़माने की फ़ज़ा ,
खुदा रसीदह - जिसकी खुदा तक पहुँच हो ,नशश्ए नख़वत - ग़ुरूर का नशा ,हक़ीक़तनेगार -हक़ीकत बयान करने वाला
Monday, March 2, 2009
योगेन्द्र मौदगिल की ग़ज़लें व परिचय
योगेन्द्र मौदगिल जी अच्छे हास्य-व्यंग्य कवि एवं गज़लकार हैं। अनेक सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों व क्लबों से सम्मानित हैं आप को 2001 में गढ़गंगा शिखर सम्मान , 2002 में कलमवीर सम्मान , 2004 में करील सम्मान , 2006 में युगीन सम्मान, 2007 में उदयभानु हंस कविता सम्मान व 2007 में ही पानीपत रत्न से सम्मानित.
हरियाणा की एकमात्र काव्यपत्रिका कलमदंश का 6 वर्षों से निरन्तर प्रकाशन व संपादन। दैनिक भास्कर में 2000 में हरियाणा संस्करण में दैनिक काव्य स्तम्भ तरकश का लेखन। इनकी कविताओं की 6 मौलिक एवं 10 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हैं। हाल ही मे इनका ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुआ है और आप इसे प्राप्त कर सकते हैं.आज हम तीन ग़ज़ले आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं.
ग़ज़ल
भँवर से बच के निकलें जो उन्हें साहिल डुबोते हैं
अजूबे तेरी दुनिया में कभी ऐसे भी होते हैं
ये परदे की कलाकारी भला व्यवहार थोड़े है
जो रिश्तों को बनाते हैं वही रिश्तों को खोते हैं
वो फूलों से भी सुंदर हैं वो कलियों से भी कोमल हैं
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं
किसी को पेट भरने तक मयस्सर भी नहीं रोटी
बहुत से लोग खा-खा कर यहां बीमार होते हैं
जिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते
बिछा कर धूप का टुकड़ा ऒढ़ अखब़ार सोते हैं
हमीं ने आसमानों को सितारों से सजाया है
हमीं धरती के सीने में बसंती बीज बोते हैं
मुहब्बत से भरी नज़रें तो मिलती हैं मुकद्दर से
बहुत से लोग नज़रों के मगर नश्तर चुभोते हैं
बहरे-हजज़ सालिम
ग़ज़ल
रफ्ता-रफ्ता जो बेकसी देखी
अपनी आंखों से खुदकुशी देखी
आप सब पर यक़ीन करते हैं
आपने खाक़ ज़िन्दगी देखी
आग लगती रही मक़ानों में
लो मसानों ने रौशनी देखी
एक अब्बू ने मूंद ली आंखें
चार बच्चों ने तीरगी देखी
उतनी ज्यादा बिगड़ गयी छोरी
जितनी अम्मां ने चौकसी देखी
बाद अर्से के छत पे आया हूं
बाद अरसे के चांदनी देखी
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
ग़ज़ल
कट गये पीपल ठिकाना पंछियों का खो गया
पहले जैसा आना जाना पंछियों का खो गया
कौन जाने कब शहर में गोलियां पत्थर चलें
मौज में उड़ना उड़ाना पंछियों का खो गया
दिन में होती हैं कथाएं रात में भी रतजगे
शोरोगुल में चहचहाना पंछियों का खो गया
शह्र में बढ़ता प्रदूषण खेत घटते देख कर
प्यार की चोंचें लड़ाना पंछियों का खो गया
कौन है जो दाद देगा अब मेरी परवाज़ को
सोच कर ये छत पे आना पंछियों का खो गया
इतनी महंगाई के दाना दाना है अब कीमती
बैठ मुण्डेरों पे खाना पंछियों का खो गया
अब कहां अमुवा की डाली अब ना गूलर ढाक हैं
मस्त हों पींगे चढ़ाना पंछियों का खो गया
बहरे-रमल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
मौदगिल जी की किताब "अंधी आँखे गीले सपने" के खूबसूरत अशआर :
* बिन बरसे कैसे जायेंगे शब्दों के घन छाए तो
आँसु भी विद्रोह करेंगे हमने गीत सुनाए तो.
* माना कि सूरज की तरह हर शाम ढलना है हमे
हर हाल मे लेकिन अभी भी और चलना है हमे.
*लहू के छींटे दरवाजे पर राम भजो
सहमे-सहमे दीवारो-दर राम भजो.
*वो भी मुझ जैसा लगता है
शीशे मे उतरा लगता है.
*बच्चों के अधरों पर जब भी दिखती है मुस्कान मुझे
जाने कितनी उम्रें पीछे ले जाता है ध्यान मुझे.
* यादें जंगल जैसी क्यों हैं
उल्झा-उलझा सोच रहा हूँ.
*घर मे चिंता खड़ी होगयीं
बच्चियां अब बड़ी हो गयीं.
*तन-मन जुटा कमाई मे
अनबन भाई-भाई में.
*फ़ैशनों की झड़ी हो गई
मेंढकी जलपरी हो गई.
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