Friday, July 30, 2010
शिव कुमार बटालवी की 75वीं बर्षगाँठ पर विशेष
शिव कुमार बटालवी का जन्म 23, जुलाई 1936 को गांव बड़ा पिंड लोहटियां, जो अब पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में स्थित है, में हुआ था। 28 साल की उम्र में शिव को 1965 में अपने काव्य नाटक "लूणा " के लिये साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया। उन्हे पंजाबी साहित्य का जान कीट्स भी कहा जाता है। केवल 36 साल की उम्र में वो 1973 की 6-7 मई की मध्य रात्रि को अपनी इन पंक्तियों को सच करता हुआ सदा के लिए विदा हो गया-
''असां ते जोबन रूते मरना, मुड़ जाणां असां भरे - भराये,
हिज़्र तेरे दी कर परक्रमा, असां तां जोबन रूते मरना..
दुनिया का मिज़ाज बहुत अजीव है। ये मुर्तियों को बहुत पूजती हैं लेकिन जो सामने है उसकी उपेक्षा करती है। किसी शायर ने सच कहा है-
सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं
आज शिव की बात याद आती है-"life is a slow suicide जो intellectual है वो धीरे-धीरे मरेगा " यही होता आया है और आगे भी शायद ऐसा ही होगा। ख़ैर! शिव की कही ये गज़ल सुनिए जो कुछ ऐसे ही अहसासों से लबरेज़ है-
Friday, July 23, 2010
स्व: श्री तलअत इरफ़ानी की गज़लें
तिलक राज वशिष्ट उर्फ़ तलअत इरफानी का जन्म पकिस्तान के गुजरांवाला तहसील के गाँव खनानी में हुआ । लेकिन बाद में वो कुरुक्षेत्र में आकर बस गए। नज़्म और ग़ज़ल बड़ी संज़ीदगी से कहते थे । 2003 में वो इस दुनिया को सदा के लिए विदा कह गए। आप स्व: मनोहर साग़र पालमपुरी के भी अज़ीज दोस्त थे । उनकी कुछ गज़लें आपके लिए पेश कर रहा हूँ और ये उस शायर के लिए "आज की ग़ज़ल" की तरफ से श्रदांजलि है।
ये शे’र देखिए "जटा और गंगा" जैसे शब्दों का बेमिसाल प्रयोग-
उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में
और ये देखिए -
छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में
गज़लीयत के साथ-साथ अनोखी और अनूठी कहन -
छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है
रंगे-तसव्वुफ़-
दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है
इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और ये बेमिसाल है -
उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता
खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उड़ी
तलअत तमाम गाँव का नक़्शा संवर गया
खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया
ऐसा शायर शायरी के बारे में क्या कहता है पढ़िए एक छोटी सी खूबसूरत नज़्म-
मैं जब- जब,
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीयत
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपने आप ज़बां में ढल जाता है
दूर अन्धेरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।
शिमला की याद में ये शे’र -
यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ
दोस्तो! जेबों से बाहर आओ भी
ग़ज़ल कैसी हो? और शे’र कैसे कहा जाया? कहन क्या है और कैसी होनी चाहिए? गज़लीयत क्या है , परवाज़ क्या है ? कल्पना क्या है ? और नये शब्द कैसे प्रयोग किए जाएँ? इन सब सवालों का जवाब हैं तलअत साहब की शायरी।
लीजिए अब ये गज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दास्तानों से
धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से
समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से
यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से
वो अन्दर का सफर था या सराबे-आरज़ू यारो
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से
लचकते बाजुओं का लम्ज़* तो पुरकैफ़ था "तलअत"
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दास्तानों से
लम्ज़-दोष लगाना
बहरे-हज़ज
मुफ़ाईलुऩ x 4
दो
बुझा है इक चिराग़े-दिल तो क्या है
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है
तुम्हीं से जब नही कोई तअल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है
तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है
सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है
कहीं मुँह चूम ले उसका न कोई
वो शायद इस लिए कम बोलता है
हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत
हमी को दर्द ने रुसवा किया है
हयात इक दार है "तलअत" की जिस पर
अज़ल से आदमी लटका हुआ है
बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
तीन
बदन उसका अगर चेहरा नहीं है
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है
दरख़्तों पर वही पत्ते हैं बाकी
कि जिनका धूप से रिश्ता नहीं है
वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है
सभी चेहरे मुक़म्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है
वही रफ़्तार है "तलअत" हवा की
मगर बादल का वह टुकड़ा नहीं है
बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
चार
बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी
शाख़ों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी
सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी
कुछ लोग रस्सियों के सहारे खड़े रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी
कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी
तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी
बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ सूरत)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
ये शे’र देखिए "जटा और गंगा" जैसे शब्दों का बेमिसाल प्रयोग-
उतरे गले से ज़हर समंदर का तो बताएं
गंगा कहाँ छिपी है हमारी जटाओं में
और ये देखिए -
छुटता नहीं है जिस्म से यह गेरुआ लिबास,
मिलते नहीं हैं राम भरत को खडावोँ में
गज़लीयत के साथ-साथ अनोखी और अनूठी कहन -
छूते ही तुम्हें हम तो अन्दर से हुए खाली
बर्तन ने कहीं यूँ भी पानी को सदा दी है
रंगे-तसव्वुफ़-
दरीचे खिड़कियाँ सब बंद कर लो,
बस इक अन्दर का दरवाज़ा बहुत है
इनका अपना अलग ही अंदाज़ है और ये बेमिसाल है -
उछल के गेंद जब अंधे कुएं में जा पहुँची
घरों का रास्ता बच्चों पे मुस्कुरा उठता
खुशबू हवा में नीम के फूलों से यूँ उड़ी
तलअत तमाम गाँव का नक़्शा संवर गया
खिड़की पे कुछ धुँए की लकीरें सफर में थीं
कमरा उदास धूप की दस्तक से डर गया
ऐसा शायर शायरी के बारे में क्या कहता है पढ़िए एक छोटी सी खूबसूरत नज़्म-
मैं जब- जब,
अपने अन्दर की आंखें खोल रहा होता हूँ
चारों ओर
मुझे बस एक उसी का रूप नज़र आता है
नहीं चाहता कुछ भी कहना
लेकिन एक अजीब कैफ़ीयत
साँस-साँस इज़हारे तअल्लुक
यादें, आंसू, लोग, ज़मीं, आकाश, सितारे
जैसे कोई बहरे फ़ना में
आलम आलम हाथ पसारे
और मदद के लिए पुकारे
और वह सब जो
पीछे छूट चुका होता है
या आगे आने वाला होता है
जाने कैसे?
सन्नाटे की दीवारों को तोड़ के
अपने आप ज़बां में ढल जाता है
दूर अन्धेरे की घाटी में
एक दिया सा जल जाता है।
शिमला की याद में ये शे’र -
यह ठिठुरती शाम यह शिमला की बर्फ
दोस्तो! जेबों से बाहर आओ भी
ग़ज़ल कैसी हो? और शे’र कैसे कहा जाया? कहन क्या है और कैसी होनी चाहिए? गज़लीयत क्या है , परवाज़ क्या है ? कल्पना क्या है ? और नये शब्द कैसे प्रयोग किए जाएँ? इन सब सवालों का जवाब हैं तलअत साहब की शायरी।
लीजिए अब ये गज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
एक
टपकता है मेरे अन्दर लहू जिन आसमानों से
कोई तो रब्त है उनका ज़मीं की दास्तानों से
धुंआ उठने लगा जब संगे मरमर की चटानो से
सितारों ने हमें आवाज़ दी कच्चे मकानों से
समंदर के परिंदों साहिलों को लौट भी जाओ
बहुत टकरा लिए हो तुम हमारे बादबानोँ से
यह माना अब भी आंतों में कही तेजाब है बाकी
निकल कर जाओगे लेकिन कहाँ बीमारखानों से
वो अन्दर का सफर था या सराबे-आरज़ू यारो
हमारा फासला बढता गया दोनों जहानों से
लचकते बाजुओं का लम्ज़* तो पुरकैफ़ था "तलअत"
मगर वाकिफ न थे हम पत्थरों की दास्तानों से
लम्ज़-दोष लगाना
बहरे-हज़ज
मुफ़ाईलुऩ x 4
दो
बुझा है इक चिराग़े-दिल तो क्या है
तुम्हारा नाम रौशन हो गया है
तुम्हीं से जब नही कोई तअल्लुक
मेरा जीना न जीना एक सा है
तेरे जाने के बाद ए दोस्त हम पर
जो गुजरी है वो दिल ही जानता है
सरासर कुफ्र है उस बुत को छूना
वो इस दर्जा मुक़द्दस हो गया है
कहीं मुँह चूम ले उसका न कोई
वो शायद इस लिए कम बोलता है
हमी ने दर्द को बख्शी है अज़मत
हमी को दर्द ने रुसवा किया है
हयात इक दार है "तलअत" की जिस पर
अज़ल से आदमी लटका हुआ है
बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
तीन
बदन उसका अगर चेहरा नहीं है
तो फिर तुमने उसे देखा नहीं है
दरख़्तों पर वही पत्ते हैं बाकी
कि जिनका धूप से रिश्ता नहीं है
वहां पहुँचा हूँ तुमसे बात करने
जहाँ आवाज़ को रस्ता नहीं है
सभी चेहरे मुक़म्मल हो चुके हैं
कोई अहसास अब तन्हा नहीं है
वही रफ़्तार है "तलअत" हवा की
मगर बादल का वह टुकड़ा नहीं है
बहरे-हज़ज मुज़ाहिफ़ सूरत
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
चार
बस्ती जब आस्तीन के साँपों से भर गयी
हर शख्स की कमीज़ बदन से उतर गयी
शाख़ों से बरगदों की टपकता रहा लहू
इक चीख असमान में जाकर बिखर गयी
सहरा में उड़ के दूर से आयी थी एक चील
पत्थर पे चोंच मार के जाने किधर गयी
कुछ लोग रस्सियों के सहारे खड़े रहे
जब शहर की फ़सील कुएं में उतर गयी
कुर्सी का हाथ सुर्ख़ स्याही से जा लगा
दम भर को मेज़पोश की सूरत निखर गयी
तितली के हाथ फूल की जुम्बिश न सह सके
खुशबू इधर से आई उधर से गुज़र गयी
बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ सूरत)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
Friday, July 16, 2010
निश्तर ख़ानक़ाही की दो गज़लें
1930 में बिजनौर(उ.प्र) में जन्में निश्तर ख़ानक़ाही साहब के अब तक पाँच गज़ल संग्रह छ्प चुके हैं और कई साहित्यक सम्मान भी ये हासिल कर चुके हैं।संजीदगी और दुख-दर्द का अनूठा बयाँ हैं उनकी गज़लें। कुछ शे’र मुलाहिज़ा कीजिए और शायर के क़द का अंदाज़ अपने आप हो जाएगा-
मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे
अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए
हवाएँ गर्द की सूरत उड़ा रहीं हैं मुझे
न अब ज़मीं ही मेरी है ,न आसमान मेरा
धड़का था दिल कि प्यार का मौसम गुज़र गया
हम डूबने चले थे कि दरिया उतर गया
लीजिए इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-
एक
सौ बार लौहे-दिल* से मिटाया गया मुझे
मैं था वो हर्फ़े-हक़ कि भुलाया गया मुझे
लिक्खे हुए कफ़न से मेरा तन ढका गया
बे-कतबा* मक़बरों में दबाया गया मुझे
महरूम करके साँवली मिट्टी के लम्स से
खुश रंग पत्थरों मे उगाया गया मुझे
पिन्हाँ थी मेरे जिस्म में कई सूरजों की आँच
लाखों समुंदरों में बुझाया गया मुझे
किस-किसके घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे
मैं भी तो इक सवाल था हल ढूँढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में ऊड़ाया गया मुझे
लौहे-दिल-ह्रदय-पट्ल, बे-कतबा-बिना शिलालेख वाले
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
दो
तेज़ रौ पानी की तीखी धार पर चलते हुए
कौन जाने कब मिलें इस बार के बिछुड़े हुए
अपने जिस्मों को भी शायद खो चुका है आदमी
रास्तों मे फिर रहे हैं पैरहन बिखरे हुए
अब ये आलम है कि मेरी ज़िंदगी के रात-दिन
सुबह मिलते हैं मुझे अख़बार में लिपटे हुए
अनगिनत जिस्मों का बहरे-बेकरां* है और मैं
मुदद्तें गुज़री हैं अपने आप को देखे हुए
किन रुतों की आरज़ू शादाब रखती है उन्हें
ये खिज़ाँ की शाम और ज़ख़्मों के वन महके हुए
काट में बिजली से तीखी, बाल से बारीक़तर
ज़िंदगी गुज़री है उस तलवार पर चलते हुए
*बहरे-बेकरां -अथाह सागर
बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
Tuesday, July 6, 2010
राजेश रेड्डी की दो ग़ज़लें
22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया। आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं । जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं । इनकी दो गज़लें हाज़िर हैं-
एक
गिरते-गिरते एक दिन आखिर सँभलना आ गया
ज़िंदगी को वक़्त की रस्सी पे चलना आ गया
हो गये हैं हम भी दुनियादार यानी हमको भी
बात को बातों ही बातों में बदलना आ गया
बुझके रह जाते हैं तूफ़ाँ उस दिये के सामने
जिस दिये को तेज़ तूफ़ानों में जलना आ गया
जमअ अब होती नहीं हैं दिल में ग़म की बदलियाँ
क़तरा-क़तरा अब उन्हें अश्कों में ढलना आ गया
दिल खिलौनों से बहलता ही नहीं जब से उसे
चाँद-तारों के लिए रोना मचलना आ गया
(रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत)
दो
सोचा न कभी खाने कमाने से निकलकर
हम जी न सके अपने ज़माने से निकलकर
जाना है किसी और फ़साने में किसी दिन
आये थे किसी और फ़साने से निकलकर
ढलता है लगातार पुराने में नया दिन
आता है नया दिन भी पुराने से निकलकर
दुनिया से बहुत ऊब कर बैठे थे अकेले
अब जाएँ कहाँ दिल के ठिकाने से निकलकर
किस काम की यारब तेरी अफ़सानानिग़ारी
किरदार भटकते हैं फ़साने से निकलकर
चहरों की बड़ी भीड़ में दम घुट सा गया था
साँस आई मेरी आइनाख़ाने से निकलकर
कोशिश से कहाँ हमने कोई शे’र कहा है
आये हैं गुहर ख़ुद ही ख़ज़ाने से निकलकर
हज़ज की मुज़ाहिफ़ सूरत
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ालुन
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नासिर काज़मी - एक ग़ज़ल वो साहिलों पे गाने वाले क्या हुए वो कश्तियाँ चलाने वाले क्या हुए वो सुब्ह आते आते रह गई कहाँ जो क़ाफ़िले थे आने वाले क्...
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स्व : श्री प्राण शर्मा जी को याद करते हुए आज उनके लिखे आलेख को आपके लिए पब्लिश कर रहा हूँ | वो ब्लागिंग का एक दौर था जब स्व : श्री महावीर प...