Saturday, September 15, 2012

नवनीत शर्मा जी की ग़ज़ल



ग़ज़ल

मैं जाकर ख्‍वाब की दुनिया में जितना जगमगाया हूँ
खुली है आंख तो उतना ही खुद पे सकपकाया हूँ

मुझे बाहर के रस्‍तों पर नहीं कांटों का डर कोई
वो सब अंदर के हैं बीहड़ मैं जिनपे डगमगाया हूँ

हां अब भी शाम को यादों के कुछ जुगनू चमकते हैं
मैं बेशक सारे खत लहरों के जिम्‍मे छोड़ आया हूँ

तुम्‍हारे ख्‍वाब की ताबीर से वाकिफ हैं सारे ही
मैं अपने ख्‍वाब की सूरत का इक धुंधला सा साया हूँ

मुझे तुमसे नहीं शिकवा मगर "नवनीत" से तो है
मैं बन कर आंख तेरी अब तलक क्‍यों डबडबाया हूँ


-नवनीत शर्मा, समाचार संपादक, दैनिक जागरण हिमाचल प्रदेश