Thursday, January 10, 2013

सुरेश चन्द्र ‘शौक़’












ग़ज़ल

ज़र्रा-ज़र्रा वो बिखेरेगा बिखर जाऊँगा
अपनी तक्मील* बहरहाल मैं कर जाऊँगा

मेरा ज़ाहिर* भी वही है मेरा बातिन* भी वही
मत समझना कि मैं आईने से डर जाऊँगा

है कोई ठौर ठिकाना न कोई मेरा सुराग़
ढूँढने निकलूँगा खुद को तो किधर जाऊँगा

प्यार बेलौस मेरा जज़्बे मेरे पाकीज़ा
इक न इक रोज़ तेरे दिल में उतर जाऊँगा

जब तू यादों के दरीचों से कभी झाँकेगा
अश्क बन कर तेरी पलकों पे ठहर जाऊँगा

मेरी तक़दीर में काँटे हैं तो काँटे ही सही
तेरे दामन को मगर फूलों से भर जाऊँगा

अपने अश्कों के एवज़ क़हक़हे बख़्शूँगा तुझे
ज़िन्दगी ! तुझ पे ये एहसान भी कर जाऊँगा

“शौक़” हैरान-सा कर दूँगा उसे भी इक रोज़
बेनियाज़* उसके मुक़ाबिल से गुज़र जाऊँगा


*तक्मील=किसी काम को पूरा करने में कोई कसर न रखना
*बहरहाल = जैसे तैसे
*ज़ाहिर= प्रत्यक्ष
*बातिन =अप्रत्यक्ष, अन्दर का
*एवज़=बदले में
*बेनियाज़ =बेपर्वा


8 comments:

रविकर said...

आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

सुरेश जी अच्छा लिखते हैं

रश्मि शर्मा said...

बहुत खूबसूरत गजल

tbsingh said...

very good.

Anonymous said...

wow!

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