ग़ज़ल
जिस्म के ज़ख्म तो भर जाते हैं इक न इक दिन
मुददतें बीत गयीं रूह का छाला न गया .
रो न पड़तीं तो भला और क्या करतीं आँखें ,
ज़िंदगी इनसे तेरा दर्द संभाला न गया .
बस उजाले से उजाले का मिलन होता रहा
घुप अँधेरे से कभी मिलने उजाला न गया .
घर के भीतर न मिला चैन कभी दिल को मगर
पाँव दहलीज से बाहर भी निकाला न गया
प्रश्न क्यों प्रश्न रहे आज तक उत्तर न मिला
इक यही प्रश्न तबीयत से उछला न गया
हो के बेफ़िक्र चली आती हैं जब जी चाहे
इक तेरी याद का आना कभी टाला न गया
ग़ज़ल
एक झूठी मुस्कुराह्ट को खुशी कहते रहे
सिर्फ़ जीने भर को हम क्यों ज़िन्दगी कहते रहे
लोग प्यासे कल भी थे हैं आज भी प्यासे बहुत
फिर भी सब सहरा को जाने क्यों नदी कहते रहे
हम तो अपने आप को ही ढूंढते थे दर-ब-दर
लोग जाने क्या समझ आवारगी कहते रहे .
अब हमारे लब खुले तो आप यूं बेचैन हैं
जबकि सदियों चुप थे हम बस आप ही कहते रहे
.
रहनुमाओं में तिज़ारत का हुनर क्या खूब है
तीरगी दे करके हमको रोशनी कहते रहे