Friday, September 4, 2009

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले -दूसरी किश्त











न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

बर्क़ी जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ हाज़िर हैं अगली तीन ग़ज़लें-

डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी

जो था अर्ज़ वह मुद्दआ कर चले
जफाओं के बदले वफा कर चले

कोई उसका इनआम दे या न दे
जो था फ़र्ज़ अपना अदा कर चले

है वादा ख़िलाफ़ी तुम्हारा शआर
किया था जो वादा निभा कर चले

खटकता है तुमको हमारा वजूद
हमीं थे जो सब कुछ फ़िदा कर चले

नहीं है कोई अपना पुरसान-ए-हाल
जो कहना था हमको सुना कर चले

सुनूँ मैं भी तुम यह बताओ कहां
मेरा ख़ून-ए-नाहक़ बहा कर चले

सितम सह के भी हमने उफ तक न की
हम उसके लिए यह दुआ कर चले

न होगी कभी जिसकी कम रोशनी
वो शम-ए- मुहब्बत जला कर चले

तुम ऐसे सनम हो जिसे हम सदा
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

नज़र अब चुराते हैं वह गुल अज़ार
जिन्हें सुर्ख़रू बारहा कर चले

यक़ीं तुमको मेरी बला से न आए
जो थी बदगुमानी मिटा कर चले

तबीयत है बर्क़ी की जिद्दत पसंद
किसी ने नहीं जो किया कर चले

प्रेमचंद सहजवाला

वो नज़रे-करम मुझ पे क्या कर चले
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

जो अपने थे वो सब दगा कर चले
परायों का अब आसरा कर चले

यहीं से वो गुज़रा किये आजकल
यही सोच कर गुल बिछा कर चले

किये नज़्र तुमने जो अरमान कल
वही आज लोरी सुना कर चले

सज़ा-ए-कज़ा उन मसीहाओं को
जो सच से हैं पर्दा हटा कर चले

मेरी हक़-बयानी का ये है सिला
वो मेरा घरौंदा जला कर चले

ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

रहे-इश्क़ में हम यह क्या कर चले
कसक दिल की किसको सुना कर चले

ग़मो- दर्द जिसने न समझे कभी
उसे ज़ख़्मे-दिल क्यों दिखा कर चले

कहीं हसरतें आह भरती रहीं
कही जामे-उलफ़त लुढ़ा कर चले

वह जाज़िब नज़र हो गया पैरहन
जिसे आप तन पर सजा कर चले

जो रस्म-ए-वफ़ा तर्क करते रहे
वही बा वफ़ा से गिला कर चले

भला इश्क़ क्यूँ हुस्न-ए-मग़रूर से
बता आजज़ी इल्तेजा कर चले

वो सुन कर मेरी दास्तान-ए-अलम
बडे नाज़ से मुस्कुरा कर चले

चली ज़ुलमत-ए-शब की आंधी बहुत
दीया हम भी सर पर जला कर चले

न था जिस सनम का कोई उसको हम
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

Wednesday, September 2, 2009

नज़र में सभी की खु़दा कर चले - पहली किश्त











ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज—ए—अक़ीदत अदा कर चले

इस तरही का आगाज़ हम स्व: साग़र साहब की ग़ज़ल से कर रहे हैं। हाज़िर हैं पहली तीन ग़ज़लें-

मनोहर शर्मा’साग़र’ पालमपुरी

इरादे थे क्या और क्या कर चले
कि खुद को ही खुद से जुदा कर चले

अदा यूँ वो रस्म—ए—वफ़ा कर चले
क़दम सूए—मक़्तल उठा कर चले

ये अहले-सियासत का फ़र्मान है
न कोई यहाँ सर उठा कर चले

उजाले से मानूस थे इस क़दर
दीए आँधियों में जला कर चले

करीब उन के ख़ुद मंज़िलें आ गईं
क़दम से क़दम जो मिला कर चले

जिन्हें रहबरी का सलीक़ा न था
सुपुर्द उनके ही क़ाफ़िला कर चले

ग़ज़ल कह के हम हजरते मीर को
ख़िराज़—ए—अक़ीदत अदा कर चले

गौतम राजरिषी

हुई राह मुश्किल तो क्या कर चले
कदम-दर-कदम हौसला कर चले

उबरते रहे हादसों से सदा
गिरे, फिर उठे, मुस्कुरा कर चले

लिखा जिंदगी पर फ़साना कभी
कभी मौत पर गुनगुना कर चले

वो आये जो महफ़िल में मेरी, मुझे
नजर में सभी की खुदा कर चले

बनाया, सजाया, सँवारा जिन्हें
वही लोग हमको मिटा कर चले

खड़ा हूँ हमेशा से बन के रदीफ़
वो खुद को मगर काफ़िया कर चले

उन्हें रूठने की है आदत पड़ी
हमारी भी जिद है, मना कर चले

जो कमबख्त होता था अपना कभी
उसी दिल को हम आपका कर चले

जोगेश्वर गर्ग

कदम से कदम जो मिला कर चले
वही चोट दिल पर लगा कर चले

न लौटे, न देखा पलट कर कभी
कसम आपकी जो उठा कर चले

सज़ा दे रहा यूँ ज़माना हमें
कि जैसे फ़क़त हम खता कर चले

उठायी, मिलाई, झुकाई नज़र
हमें इस अदा पर फना कर चले

न सोचा, न समझा मगर हम उसे
नज़र में सभी की खुदा कर चले

नहीं चाहिए वो तरक्की हमें
अगर आदमीयत मिटा कर चले

उन्हें चैन कैसे मिलेगा भला
किसी का अगर दिल दुखा कर चले

न "जोगेश्वरों" की जरूरत रही
यहाँ से उन्हें सब विदा कर चले

Friday, August 28, 2009

पदम श्री बेकल उत्साही- ग़ज़लें और परिचय







पहले तुम वक़्त के माथे की लक़ीरों से मिलो
जाओ फुटपाथ के बिखरे हुए हीरों से मिलो

पदम श्री लोदी मोहम्मद शफ़ी खान उर्फ़ बेकल उत्साही शायरी की दुनिया का एक चमकता सितारा है। इनका जन्म 1924 उ.प्र. मे हुआ। इन्होंने हिंदी,उर्दू मे ग़ज़लें नज़्में और अबधि में गीत भी लिखे हैं।अज़ीम शायर जिगर मुरादाबादी के प्रिय शिष्य रहे हैं और करीब 20 पुस्तकें लिख चुके हैं।ग़ज़लों मे अपने खास अंदाज़ के लिए जाने जाते हैं। इनके दोहे भी बहुत चर्चित हुए हैं।

आज की ग़ज़ल पर हम कोई भी ग़ज़ल शायर की अनुमति के बिना नहीं छापते। फोन पर उनसे बात करके ये ग़ज़लें यहाँ हाज़िर कर रहे हैं और हमें खु़शी है कि इस क़द के शायर ने इस पत्रिका के लिए शुभकामनाएँ भेजी हैं। हाज़िर हैं पाँच ग़ज़लें-

एक

ये दुनिया तुझसे मिलने का वसीला काट जाती है
ये बिल्ली जाने कब से मेरा रस्ता काट जाती है

पहुँच जाती हैं दुशमन तक हमारी ख़ुफ़िया बातें भी
बताओ कौन सी कैंची लिफ़ाफ़ा काट जाती है

अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है

तेरी वादी से हर इक साल बर्फीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है

किसी कुटिया को जब "बेकल"महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है

दो

वो तो मुद्दत से जानता है मुझे
फिर भी हर इक से पूछता है मुझे

रात तनहाइयों के आंगन में
चांद तारों से झांकता है मुझे

सुब्‌ह अख़बार की हथेली पर
सुर्खियों मे बिखेरता है मुझे

होने देता नही उदास कभी
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझे

मैं हूँ बेकल मगर सुकून से हूँ
उसका ग़म भी संवारता है मुझे

तीन

सुनहरी सरज़मीं मेरी, रुपहला आसमाँ मेरा
मगर अब तक नहीं समझा, ठिकाना है कहाँ मेरा

किसी बस्ती को जब जलते हुए देखा तो ये सोचा
मैं खुद ही जल रहा हूँ और फैला है धुआँ मेरा

सुकूँ पाएँ चमन वाले हर इक घर रोशनी पहुँचे
मुझे अच्छा लगेगा तुम जला दो आशियाँ मेरा

बचाकर रख उसे मंज़िल से पहले रूठने वाले
तुझे रस्ता दिखायेगा गुबारे-कारवाँ मेरा

पड़ेगा वक़्त जब मेरी दुआएँ काम आयेंगी
अभी कुछ तल्ख़ लगता है ये अन्दाज़-ए-बयाँ मेरा

कहीं बारूद फूलों में, कहीं शोले शिगूफ़ों में
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे, है यही जन्नत निशाँ मेरा

मैं जब लौटा तो कोई और ही आबाद था "बेकल"
मैं इक रमता हुआ जोगी, नहीं कोई मकाँ मेरा

चार

जब दिल ने तड़पना छोड़ दिया
जलवों ने मचलना छोड़ दिया

पोशाक बहारों ने बदली
फूलों ने महकना छोड़ दिया

पिंजरे की सम्त चले पंछी
शाख़ों ने लचकना छोड़ दिया

कुछ अबके हुई बरसात ऐसी
खेतों ने लहकना छोड़ दिया

जब से वो समन्दर पार गया
गोरी ने सँवरना छोड़ दिया

बाहर की कमाई ने बेकल
अब गाँव में बसना छोड़ दिया

पाँच

हम को यूँ ही प्यासा छोड़
सामने चढ़ता दरिया छोड़

जीवन का क्या करना मोल
महँगा ले-ले, सस्ता छोड़

अपने बिखरे रूप समेट
अब टूटा आईना छोड़

चलने वाले रौंद न दें
पीछे डगर में रुकना छोड़

हो जायेगा छोटा क़द
ऊँचाई पर चढ़ना छोड़

हमने चलना सीख लिया
यार हमारा रस्ता छोड़

ग़ज़लें सब आसेबी हैं
तनहाई में पढ़ना छोड़

दीवानों का हाल न पूछ
बाहर आजा परदा छोड़

बेकल अपने गाँव में बैठ
शहरों-शहरों बिकना छोड़


शायर का पता-
गीतांजली सिविल लाइन
बलराम पुर (उ.प्र.)

Saturday, August 22, 2009

दीक्षित दनकौरी की ग़ज़लें और परिचय






भुवनेश्वर प्रसाद दीक्षित उर्फ़ दीक्षित दनकौरी जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं है। आप "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" के तीन खंडो का संपादन कर चुके हैं जिसमें देश के नये-पुराने ग़ज़लकारों को शामिल किया गया है और चौथे खंड की तैयारी कर रहे हैं। दिल्ली में अध्यापक हैं और देश-विदेश के मुशायरों मे शिरकत करते रहते हैं। उनकी दो ग़ज़लें हम हाज़िर कर रहे हैं. इनका ग़ज़ल संग्रह "डूबते-वक्त" जल्द प्रकाशित हो रहा है.

एक

मुद्‍दआ वयान हो गया
सर लहू-लुहान हो गया।

कै़द से रिहाई क्या मिली
तंग आसमान हो गया।

तेरे सिर्फ़ इक वयान से
कोई बेजुबान हो गया।

छिन गया लो कागज़े-हयात
ख़त्म इम्तिहान हो गया।

रख गया गुलाब क़ब्र पर
कौन कद्रदान हो गया।

दो

आग सीने में दबाए रखिए
लब पे मुस्कान सजाए रखिए।

जिससे दब जाएँ कराहें घर की
कुछ न कुछ शोर मचाए रखिए।

गै़र मुमकिन है पहुँचना उन तक
उनकी यादों को बचाए रखिए।

जाग जाएगा तो हक़ मांगेगा
सोए इन्सां को सुलाए रखिए।

जुल्म की रात भी कट जाएगी
आस का दीप जलाए रखिए।

पता-

डी.डी.ए. फ्लैटस
७६, मानसरोवर पार्क
दिल्ली

Saturday, August 15, 2009

राजेश रेड्डी साहेब की पाँच और ग़ज़लें











कृष्ण बिहारी 'नूर'शायरी मे एक जाना पहचाना नाम है जिनकी शायरी सूफ़ियाना रंग में रंगी हुई है और मक़बूल भी है उनकी ग़ज़ल का ये मतला पढ़िए-

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझ में
और फिर मानना पड़ता है के ख़ुदा है मुझ में


यहाँ एक सूफ़ी शायर को खु़द में खु़दा का होना मजबूरन मानना पड़ रहा है और इस बात को रेड्डी साहब ने अपने अंदाज़ में यूँ कहा-

आग है, पानी है, मिट्टी है, हवा है मुझमें
मुझको ये वहम नहीं है कि खु़दा है मुझमें


मेरे चहरे पे मुसलसल हैं निगाहें उसकी
जाने किस शख़्स को वो ढूँढ रहा है मुझमें

हँसना चाहूँ भी तो हँसने नहीं देता मुझको
ऐसा लगता है कोई मुझसे ख़फ़ा है मुझमें

मैं समुन्दर हूँ उदासी का अकेलेपन का
ग़म का इक दरिया अभी आके मिला है मुझमें

इक ज़माना था कई ख्वाबों से आबाद था मैं
अब तो ले दे के बस इक दश्त बचा है मुझमें

किसको इल्ज़ाम दूँ मैं किसको ख़तावार कहूँ
मेरी बरबादी का बाइस तो छुपा है मुझमें

दो-






शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं

सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं

ज़िन्दगी जब मुझसे मज़बूती की रखती है उमीद
फ़ैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं

आपके रस्ते हैं आसाँ, आपकी मंजिल क़रीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं

तीन






दुख के मुका़बिल खड़े हुए हैं
हम गुर्बत में बड़े हुए हैं

मेरी मुस्कानों के नीचे
ग़म के खज़ाने गड़े हुए हैं

जीवन वो जेवर है, जिसमें
अश्क के मोती जड़े हुए हैं

जा पहुँचा मंज़िल पे ज़माना
हम सोचों में पड़े हुए हैं

दुनिया की अपनी इक ज़िद है
हम अपनी पर अड़े हुए हैं

कुछ दुख हम लेकर आए थे
कुछ अपने ही गड़े हुए हैं

जो ख़त वो लिखने वाला है
वो ख़त मेरे पढ़े हुए हैं

चार







रोज़ सवेरे दिन का निकलना, शाम में ढलना जारी है
जाने कब से रूहों का ये ज़िस्म बदलना जारी है

तपती रेत पे दौड़ रहा है दरिया की उम्मीद लिए
सदियों से इन्सान का अपने आपको छलना जारी है

जाने कितनी बार ये टूटा जाने कितनी बार लुटा
फिर भी सीने में इस पागल दिल का मचलना जारी है

बरसों से जिस बात का होना बिल्कुल तय सा लगता था
एक न एक बहाने से उस बात का टलना जारी है

तरस रहे हैं एक सहर को जाने कितनी सदियों से
वैसे तो हर रोज़ यहाँ सूरज का निकलना जारी है

पाँच








इस अहद के इन्साँ मे वफ़ा ढूँढ रहे हैं
हम ज़हर की शीशी मे दवा ढूँढ रहे हैं

दुनिया को समझ लेने की कोशिश में लगे हम
उलझे हुए धागों का सिरा ढूँढ रहे हैं

पूजा में, नमाज़ों अज़ानों में, भजन में
ये लोग कहाँ अपना खु़दा ढूँढ रहे हैं

पहले तो ज़माने में कहीं खो दिया खु़द को
आईने में अब अपना पता ढूँढ रहे हैं

ईमाँ की तिज़ारत के लिए इन दिनों हम भी
बाज़ार में अच्छी सी जगह ढूँढ रहे हैं



शायर का पता-







राजेश रेड्डी
ए-403, सिल्वर मिस्ट, अमरनाथ टॉवर के पास,
सात बंगला, अंधेरी (प.) मुबंई - 61

Saturday, August 8, 2009

राजेश रेड्डी की ग़ज़लें और परिचय







22 जुलाई 1952 को जयपुर मे जन्मे श्री राजेश रेड्डी उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिन्होंने ग़ज़ल की नई पहचान को और मजबूत किया और इसे लोगों ने सराहा भी .आप ने हिंदी साहित्य मे एम.ए. किया, फिर उसके बाद "राजस्थान पत्रिका" मे संपादन भी किया.आप नाटककार, संगीतकार, गीतकार और बहुत अच्छे गायक भी हैं.आप डॉ. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान हासिल कर चुके हैं.अभी आप आकाशवाणी मुंबई मे डायेरेक्टर सेल्स की हैसीयत से काम कर रहे हैं .जाने-माने ग़ज़ल गायक इनकी ग़ज़लों को गा चुके हैं. नेट पर इनकी कुछ ग़ज़लें हैं जिन्हें हम छाप सकते थे लेकिन जो ग़ज़लें नहीं हैं उनको हमने यहां हाज़िर किया है और ये राजेश जी की वज़ह से ही मुमकिन हुआ है मेरे एक अनुरोध पर उन्होंने अपना ग़ज़ल संग्रह "उड़ान"मुझे भेजा जिसकी बदौलत ये ग़ज़लें आप तक पहुंची और इसे हम दो या तीन हिस्सों मे पेश करेंगे. लीजिए पहली पाँच ग़ज़लें-

एक







ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
वहाँ भी रेत का अंबार होगा

ये सारे शहर मे दहशत सी क्यों हैं
यकीनन कल कोई त्योहार होगा

बदल जाएगी इस बच्चे की दुनिया
जब इसके सामने अख़बार होगा

उसे नाकामियां खु़द ढूंढ लेंगी
यहाँ जो साहिबे-किरदार होगा

समझ जाते हैं दरिया के मुसाफ़िर
जहां में हूँ वहां मंझदार होगा

वो निकला है फिर इक उम्मीद लेकर
वो फिर इक दर्द से दो-चार होगा

ज़माने को बदलने का इरादा
तू अब भी मान ले बेकार होगा

दो






कोई इक तिशनगी कोई समुन्दर लेके आया है
जहाँ मे हर कोई अपना मुकद्दर लेके आया है

तबस्सुम उसके होठों पर है उसके हाथ मे गुल है
मगर मालूम है मुझको वो खंज़र लेके आया है

तेरी महफ़िल से दिल कुछ और तनहा होके लौटा है
ये लेने क्या गया था और क्या घर लेके आया है

बसा था शहर में बसने का इक सपना जिन आँखों में
वो उन आँखों मे घर जलने का मंज़र लेके आया है

न मंज़िल है न मंज़िल की है कोई दूर तक उम्मीद
ये किस रस्ते पे मुझको मेरा रहबर लेके आया है

तीन






निगाहों में वो हैरानी नहीं है
नए बच्चों में नादानी नहीं है

ये कैसा दौर है कातिल के दिल में
ज़रा सी भी पशेमानी नहीं है

नज़र के सामने है ऐसी दुनिया
जो दिल की जानी पहचानी नहीं है

जो दिखता है वो मिट जाता है इक दिन
नहीं दिखता वो, जो फ़ानी नहीं है

खु़दा अब ले ले मुझसे मेरी दुनिया
मेरे बस की ये वीरानी नहीं है

कोई तो बात है मेरे सुख़न मे
ये दुनिया यूँ ही दीवानी नहीं है

चार







मेरी ज़िंदगी के मआनी बदल दे
खु़दा इस समुन्दर का पानी बदल दे

कई बाक़ये यूँ लगे, जैसे कोई
सुनाते-सुनाते कहानी बदल दे

न आया तमाम उम्र आखि़र न आया
वो पल जो मेरी ज़िंदगानी बदल दे

उढ़ा दे मेरी रूह को इक नया तन
ये चादर है मैली- पुरानी, बदल दे

है सदियों से दुनिया में दुख़ की हकूमत
खु़दा! अब तो ये हुक्मरानी बदल दे

पाँच






डाल से बिछुड़े परिंदे आसमाँ मे खो गए
इक हकी़क़त थे जो कल तक दास्तां मे खो गए

जुस्तजू में जिसकी हम आए थे वो कुछ और था
ये जहाँ कुछ और है हम जिस जहाँ मे खो गए

हसरतें जितनी भी थीं सब आह बनके उड़ गईं
ख़्वाब जितने भी थे सब अश्के-रवाँ मे खो गए

लेके अपनी-अपनी किस्मत आए थे गुलशन मे गुल
कुछ बहारों मे खिले और कुछ ख़िज़ाँ में खो गए

ज़िंदगी हमने सुना था चार दिन का खेल है
चार दिन अपने तो लेकिन इम्तिहाँ मे खो गए

अगली पाँच ग़ज़लें जल्द हाज़िर करूंगा.

Thursday, August 6, 2009

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले











इस बार का तर’ही मिसरा है :

नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

पूरा शे’र है -
परस्तिश कि यां तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की ख़ुदा कर चले

बहरे-मुतका़रिब की एक मुज़ाहिफ़ शक्ल है जिसके अरकान हैं-
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
काफ़िया: सदा, वफ़ा,कहा आदि("आ" स्वर का काफ़िया)
रदीफ़: कर चले

खु़दा-ए-सुख़न मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल से ये मिसरा लिया है ये पूरी ग़ज़ल हाज़िर है

ग़ज़ल-

फ़कीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले

कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले

बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले

दिखाई दिए यूं कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले

जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले

परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभी की खुदा कर चले

गई उम्र दर बंद-ऐ-फिक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले

इसी बहर में मीर ने कई ग़ज़लें कही लेकिन ये चार ग़ज़लें हाज़िर हैं ये ग़ज़लें नेट पर सिर्फ़ "आज की ग़ज़ल पर" ही हैं











एक

मुहव्बत ने खोया खपाया हमें
बहुत उन ने ढूंढा न पाया हमें

गहे* तर रहों गाह *खूबस्तां थी
इन आँखों ने क्या-क्या दिखाया हमें

मले डाले है दिल कोई इश्क़ में
ये क्या रोग यारब लगाया हमें

जवानी -दिवानी सुना क्या नहीं
हसीनों का मिलना भी भाया हमें

न समझी गई दुशमनी इश्क से
बहुत दोस्तों ने जताया हमें

कोई दम कल आई थी मजलिस में "मीर"
बहुत इस ग़ज़ल ने रुलाया हमें

*गहे-कभी, *खूबस्तां-खून से चिपकी हुई

दो

बंधा रात आंसू का कुछ तार सा
हुआ अब्रे-रहमत गुनहगार सा

कोई सादा ही उसको सादा कहे
लगे है हमें वो तो अय्यार सा

*गुलो-सर्व अच्छे सभी हैं वले
न निकला चमन से कोई यार सा

मगर आँख तेरी भी चिपकी कहीं
टपकता है चितवन से कुछ प्यार सा

*गुलो-सर्व- फूल और पेड़

तीन

चलें हम अगर तुमको इकराह है
फ़कीरों की अल्लाह अल्लाह है

चिरागाने-ग़ुल से है क्या रौशनी
गुलिस्तां किसू की क़दमगाह है

मुहव्बत है दरिया मे जा डूबना
कुएं में गिरना यही चाह है

कली सा हो कहते हैं मुख यार का
नहीं मोतबर कुछ ये अफ़वाह है

चार

फ़िराक आँख लगने की जा ही नहीं
पलक से पलक आशना ही नहीं

मुहव्बत यहां की तहां हो चुकी
कुछ इस रोग की है दवा ही नहीं

वो क्या कुछ नहीं हुस्न के शहर में
नही है तो रस्में-वफ़ा ही नहीं

नहीं दैर अगर मीर काबा तो है
हमारा कोई क्या ख़ुदा ही नहीं

इसी बहाने बशीर बद्र साहब की इसी बहर मे लिखी ग़ज़लों का लुत्फ़ लीजिए

बशीर बद्र








ख़ुदा हम को ऐसी ख़ुदाई न दे
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

ख़तावार समझेगी दुनिया तुझे
अब इतनी भी ज़्यादा सफ़ाई न दे

हँसो आज इतना कि इस शोर में
सदा सिसकियों की सुनाई न दे

अभी तो बदन में लहू है बहुत
कलम छीन ले रौशनाई न दे

मुझे अपनी चादर से यूँ ढाँप लो
ज़मीं आसमाँ कुछ दिखाई न दे

ग़ुलामी को बरकत समझने लगें
असीरों को ऐसी रिहाई न दे

मुझे ऐसी जन्नत नहीं चाहिए
जहां से मदीना दिखाई न दे

मैं अश्कों से नाम-ए-मुहम्मद लिखूँ
क़लम छीन ले रौशनाई न दे

ख़ुदा ऐसे इरफ़ान का नाम है
रहे सामने और दिखाई न दे

बशीर बद्र

मुसाफ़िर के रस्ते बदलते रहे
मुक़द्दर में चलना था चलते रहे

कोई फूल सा हाथ काँधे पे था
मेरे पाँव शोलों पे चलते रहे

मेरे रास्ते में उजाला रहा
दिये उस की आँखों के जलते रहे

वो क्या था जिसे हमने ठुकरा दिया
मगर उम्र भर हाथ मलते रहे

मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुख़ी
किराये के घर थे बदलते रहे

सुना है उन्हें भी हवा लग गई
हवाओं के जो रुख़ बदलते रहे

लिपट के चराग़ों से वो सो गये
जो फूलों पे करवट बदलते रहे

बशीर बद्र

जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ़ से निशाने लगे

हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे

घड़ी दो घड़ी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते ज़माने लगे

कभी बस्तियाँ दिल की यूँ भी बसीं
दुकानें खुलीं, कारख़ाने लगे

वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे

पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने-जाने लगे

बशीर बद्र

न जी भर के देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाक़ात की

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की

उजालों की परियाँ नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़ुबाँ सब समझते हैं जज़्बात की

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफ़िर ने जाने कहाँ रात की

मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की

आपकी तर’ही ग़ज़लों का इंतज़ार रहेगा

ख्याल

Sunday, August 2, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-अंतिम किश्त








अंतिम दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.

पूर्णिमा वर्मन

जोर हवाओं का कश्ती को जब वापस ले आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

कितने हैं जो काट सकें तूफ़ानों को पतवारों से
तेज़ हवा में आगे बढ़ना सबसे कब हो पाता है

सागर गहरा नाव पुरानी मन में जागे डर रह रह
एक भरोसा ऊपरवाले का ही पार लगाता है

बिजली, बादल, आँधी ,पानी, ओलों या बौछारों में
हिम्मत करके चलने वाला आखिर मंज़िल पाता है

दुनिया कठिन सफर है यारों जिसकी राहें पथरीली
उसकी रहमत संग रहे तो हर सपना फल जाता है

सतपाल ख़याल

शाम ढले मन पंछी बन कर दूर कहीं उड़ जाता है
सपनों के टूटे तारों से ग़ज़लें बुन कर लाता है

जाने क्या मजबूरी है जो अपना गांव छॊड़ ग़रीब
शहर किनारे झोंपड़-पट्टी मे आकर बस जाता है

देख तो कैसे आरी से ये काट रहा है हीरे को
देख तेरा दीवाना कैसे-कैसे वक्त बिताता है

तपते दिन के माथे पर रखती है ठंडी पट्टी शाम
दिन मज़दूर सा थक कर शाम के आंचल मे सो जाता है

रात के काले कैनवस पर हम क्या-क्या रंग नहीं भरते
दिन चढ़ते ही कतरा-कतरा शबनम सा उड़ जाता है

चहरा-चहरा ढूंढ रहा है खोज रहा है जाने क्या
छोटी-छोटी बातों की भी तह तक क्यों वो जाता है

कैसे झूठ को सच करना है कितना सच कब कहना है
आप ख़याल जो सीख न पाए वो सब उसको आता है

Tuesday, July 28, 2009

सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है-तीसरी किश्त







भूपेन्द्र कुमार जी के इस खूबसूरत शे’र के साथ इस किश्त की शुरूआत करते हैं..

इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है


हाज़िर हैं अगली चार तरही ग़ज़लें:

एक: एम.बी.शर्मा मधुर

बुलबुल के सुर बदले से सय्याद का मन घबराता है
सुर्ख स्याही बन जब खूं तारीख़ नई लिखवाता है

उलफ़त की राहों पे अक्सर देखे मैंने वो लम्हे
जब मैं दिल को समझाता हूँ दिल मुझ को समझाता है

दिलकश चीज़ें तोडेंगी दिल कौन यहां नावाकिफ़ है
फिर भी क्या मासूम लगें दिल धोखा खा ही जाता है

मेहनत के हाथों ने दाने हिम्मत के तो बीज दिए
बाकी रहती रहमत उस की देखें कब बरसाता है

सीना तान के चलने वाले खंजर से कब खौफ़ज़दा
आंख झुका कर वो चलता जो मौत से आंख चुराता है

घर की तल्ख़ हकीकत जब जब पांओं की ज़ंजीर बने
सात समुन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दो: भूपेन्द्र कुमार

जेबें ख़ाली हों तो अपना पगला मन अकुलाता है
भरने गर लग जाएँ तो वह बोझ नहीं सह पाता है

इन्सानों की आँखों में भी दरिय़ा सी तुग़ियानी है
पानी लेकिन आँखों का अब कमतर होता जाता है

इक भाषा को बाँट दिया है लिपियों की शमशीरों ने
हिन्दी-उर्दू का वरना तो पैदाइश से नाता है

महलों में रहने वाला जब कहता है संतोषी बन
झुग्गी में रहने वाला तब मन ही मन मुस्काता है

टीवी चैनल बन जाएँ जब सच्चाई के व्यापारी
सच दिखलाने में आईना मन ही मन शरमाता है

बारिश के पानी में देखूँ, जब भी काग़ज़ की कश्ती
मुझको अपना बीता बचपन बरबस याद आ जाता है

इस जीवन में केवल उसका सपना पूरा होता है
चट्टानें बन कर पल-पल जो लहरों से टकराता है

तूफ़ानों से डर कर जो भी साहिल पर रहता उसका
सात समन्दर पार का सपना सपना ही रह जाता है

तीन: गौतम राजरिशी

शाम ढ़ले जब साजन मेरा बन-ठन कर इतराता है
चाँद न जाने क्यूं बदली में छुप-छुप कर शर्माता है

रोटी की खातिर जब इंसां दर-दर ठोकर खाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

देखा करता है वो हमको यूं तो छुप-छुप के अक्सर
राहों में मिलता है जब भी फिर क्यूं आँख चुराता है

तैर के दरिया पार करे ये उसके बस की बात नहीं
लहरों की गर्जन सुन कर जो साहिल पर थर्राता है

रस्ते में आते-जाते वो आँखें भर देखे जब भी
ख्वाहिश की धीमी आँचों को और जरा सुलगाता है

उसको यारों की गिनती में कैसे रखना मुमकिन हो
काम निकल जाने पर जो फिर मिलने से कतराता है

सूरज गुस्से में आकर जब नींद उड़ाये धरती की
बारिश की थपकी पर मौसम लोरी एक सुनाता है

चार: कवि कुलवंत सिंह

मेरा दिल आवारा पागल नगमें प्यार के गाता है
ठोकर कितनी ही खाई पर बाज नही यह आता है

मतलब की है सारी दुनिया कौन किसे पहचाने रे
कौन करे अब किस पे भरोसा, हर कोई भरमाता है

खून के रिश्तों पर भी देखो छाई पैसे की माया
देख के अपनो की खुशियों को हर चेहरा मुरझाता है

कहते हैं अब सारी दुनिया सिमटी मुट्ठी में लेकिन
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

आँख में मेरी आते आंसू जब भी करता याद उसे
दूर नही वह मुझसे लेकिन पास नही आ पाता है

Saturday, July 25, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-दूसरी किश्त







पेश है अगली चार ग़ज़लें:

एक : शहादत अली निज़ामी

गै़र की आँखों का आसूं भी नींद उड़ा कर जाता है
दर्द ज़माने भर का मेरे दिल में ही क्यों आता है

सुनते-सुनते बरसों बीते कोई मुझको बतलाए
दर्दे-जुदाई सहने वाला पागल क्यों हो जाता है

गांव के कच्चे-पक्के रस्ते मुझको याद आते हैं
डाली पर जब कोई परिंदा मीठे बोल सुनाता है

बेताबी बेचैनी दिल की दर्दो अलम और बर्बादी
मेरा हमदम मेरी खातिर ये सौगातें लाता है

रिश्तों की जज़ीर कहां उड़ने देती है पंछी को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

सुनते हैं ये बात निज़ामी का है सब से याराना
नग़मे जो हर रोज वफ़ा के अपनी लय मे गाता है

दो : दर्द देहलवी

रोने वाले के दिल में कब कोई ग़म रह पाता है
बारिश में तो सारा कूड़ा-कर्कट ही बह जाता है

मौतों का शैदाई होकर मरने से घबराता है
ये ही तो इक रस्ता है जो उसके घर तक जाता है

होने को तो हो जाता है लफ़्ज़ों में कुछ अक्स अयाँ
लेकिन उसका हुस्न मुक्कमल शे’र मे कब ढल पाता है

बस्ती-बस्ती, सहरा -सहरा पानी जो बरसाता है
इन्सानों को करबो-बला के मंज़र भी दिखलाता है

सोना लगने लगती है जब देश की मिट्टी आँखों को
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

दर्द अदब से शे’र भी सुनना सीख न पाया है अब तक
अहले-सुखन की महफ़िल में तू शाइर भी कहलाता है

तीन : विरेन्द्र क़मर बदर पुरी

मां की बीमारी का मंज़र सामने जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

मुट्ठी बांध के आने वाला हाथ पसारे जाता है
बतला अम्मी वो बनजारा आखिर ये क्यों गाता है

बस इक सांस का झगड़ा है सब, आए, आए ,न आए
नादां है इन्सान खनकते सिक्कों पर इतराता है

कितनी सच्ची कितनी झूटी है ये बात खु़दा जाने
सुनते तो हम भी आए हैं अच्छा वक्त भी आता है

छोड़ कमर यह दानिशवर तो उंची-ऊंची हांके हैं
सीधी सच्ची बात प्यार की क्यों इनको समझाता है

चार : देवी नांगरानी

हरियाली के मौसम में जब दौरे-खिजां आ जाता है
शाख पे बैठा पंछी उसके साए से घबराता है

कोई वो गद्दार ही होगा शातिर बनके खेले जो
परदे के पीछे कठपुतली को यूं नाच नचाता है

नींव का पत्थर हर इक युग में सीने पर आघात सहे
देख ये मंज़र बेदर्दी का आज वहीं शर्माता है

साहिल-साहिल, रेती- रेती , जन्मों से प्यासी-प्यासी
प्यास बुझाने का फन " देवी" बादल को क्या आता है

Monday, July 13, 2009

सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है-पहली किश्त








मिसरा-ए-तरह "सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है" पर पहली चार ग़ज़लें.

एक: डॉ दरवेश भारती

इक दूजे का ही तो सहारा वक़्त पे काम आ जाता है
वक़्त पडा जब भी मैं दिल को, दिल मुझ को बहलाता है

राहे-वफ़ा में जाने-वफ़ा का साथ न जब मिल पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

जिनके सहारे बीत रहा है ये संघर्ष भरा जीवन
लम्हा-लम्हा उन यादों का ही मन को महकाता है

चाहे जितनी अंध-गुफाओं में हम क़ैद रहे लेकिन
ध्यान किसी का जब आता है अँधियारा छट जाता है

जीवन और मरण से लड़ने बीच भँवर जो छोड़ गया
क्या देखा मुझमें अब मेरी सिम्त वो हाथ बढाता है

कोई जोगी हो या भोगी या कोई संन्यासी हो
खिंचता चला आता है जब भी मन्मथ ध्वज फेहराता है

जिस इन्सां की जितनी होती है औकात यहाँ 'दरवेश'
वो भी उस पर उतना ही तो रहमो-करम बरसाता है

दो: जोगेश्वर गर्ग

बहला-फुसला कर वह मुझको कुछ ऐसे भरमाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

अंधियारी काली रातों में उल्लू जब जब गाता है
अनहोनी की आशंका से अपना जी घबराता है

सपने देखो फिर जिद करके पूरे कर डालो लेकिन
उनसे बचना जिनको केवल स्वप्न दिखाना आता है

उलझी तो है खूब पहेली लेकिन बाद में सुलझाना
पहले सब मिल ढूंढो यारों कौन इसे उलझाता है

रावण का भाई तो केवल छः महीने तक सोता था
मेरा भाई विश्व-विजय कर पांच बरस सो जाता है

पलक झपकने भर का अवसर मिल जाए तो काफी है
वो बाजीगर जादूगर वो क्या क्या खेल दिखाता है

क्या कमजोरी है हम सब में जाने क्या लाचारी है
करना हम क्या चाह रहे हैं लेकिन क्या हो जाता है

हर होनी अनहोनी से वह करता रहता रखवाली
ईश्वर तब भी जगता है जब "जोगेश्वर" सो जाता है

तीन: अहमद अली बर्क़ी आज़मी

तुझ से बिछड़ जाने का तसव्वुर ज़हन में जब भी आता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

शब-ए-जुदाई हिज्र में तेरे कैसे गुज़रती है हमदम
दिल में ख़लिश सी उठती है और सोज़े-दुरूँ बढ जाता है

एक अनजाना ख़ौफ सा तारी हो जाता है शबे-फ़िराक़
जाने तू किस हाल में होगा सोच के दिल धबराता है

कैफो सुरूरो-मस्ती से सरशार है मेरा ख़ान-ए-दिल
मेरी समझ में कुछ नहीं आता तुझसे कैसा नाता है

है तेरी तसवीरे-तसव्वुर कितनी हसीं हमदम मत पूछ
आजा मुजस्सम सामने मेरे क्यूँ मुझको तरसाता है

तेरे दिल में मेरे लिए है कोई न कोई गोशा-ए-नर्म
यही वजह है देख के मुझको तू अक्सर शरमाता है

इसकी ग़ज़लों में होता है एक तसलसुल इसी लिए
रंग-ए-तग़ज़्ज़ुल अहमद अली बर्क़ी का सब को भाता है

चार: डी. के. मुफ़लिस

सब की नज़रों में सच्चा इंसान वही कहलाता है
जो जीवन में दर्द पराये भी हँस कर सह जाता है

जब उसकी यादों का आँचल आँखों में लहराता है
जिस्म से रूह तलक फिर सब कुछ खुशबु से भर जाता है

पौष की रातें जम जाती हैं जलते हैं आषाढ़ के दिन
तब जाकर सोना फसलों का खेतों में लहराता है

मन आँगन की रंगोली में रंग नए भर जाता है
पहले-पहले प्यार का जादू ख्वाब कई दिखलाता है

रिमझिम-रिमझिम, रुनझुन-रुनझुन बरसें बूंदें सावन की
पी-पी बोल पपीहा मन को पी की याद दिलाता है

व्याकुल, बेसुध, सम्मोहित-सी राधा पूछे बारम्बार
देख सखी री ! वृन्दावन में बंसी कौन बजाता है

जीवन का संदेश यही है नित्य नया संघर्ष रहे
परिवर्तन का भाव हमेशा राह नयी दिखलाता है

माना ! रात के अंधेरों में सपने गुम हो जाते हैं
सूरज रोज़ सवेरे फिर से आस के दीप जलाता है

आज यहाँ, कल कौन ठिकाना होगा कुछ मालूम नहीं
जग है एक मुसाफिरखाना, इक आता इक जाता है

मर जाते हैं लोग कई दब कर क़र्जों के बोझ तले
रोज़ मगर बाज़ार का सूचक , अंक नए छू जाता है

हों बेहद कमज़ोर इरादे जिनके बस उन लोगों का
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है

वादे, यादें , दर्द , नदामत , ग़म , बेचैनी , तन्हाई
इन गहनों से तो अब अपना जीवन भर का नाता है

धूप अगर है छाँव भी होगी, ऐसा भी घबराना क्या
हर पल उसको फ़िक्र हमारा जो हम सब का दाता है

हँस दोगे तो हँस देंगे सब रोता कोई साथ नहीं
आस जहाँ से रखकर 'मुफ़लिस' क्यूं खुद को तड़पाता है

समीर कबीर की दो ग़ज़लें








समीर कबीर को शायरी विरासत मे मिली है. आप स्व: शाहिद कबीर के बेटे हैं. महज़ 34 साल की उम्र मे बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और अक़्सर पत्र-पत्रिकाओं मे छपते रहते हैं. इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं.


एक








टूटा ये सिलसिला तो मुझे सोचना पड़ा
मिलकर हुए जुदा तो मुझे सोचना पड़ा

क्या-क्या शिकायतें न थी उस बदगुमान से
लेकिन वो जब मिला तो मुझे सोचना पड़ा

पहले तो *एतमाद हर एक हमसफ़र पे था
जब काफ़िला चला तो मुझे सोचना पड़ा

तय कर चुका था अब न पिऊँगा कभी मगर
जैसे ही दिन ढला तो मुझे सोचना पड़ा

क्या जाने कितने *रोज़नो-दर बे- चिराग़ थे
घर मे दिया जला तो मुझे सोचना पड़ा

जिस आदमी को कहते हैं शायद समीर लोग
उस शख़्स से मिला तो मुझे सोचना पड़ा

*एतमाद - भरोसा ,*रोज़नो-दर -छिद्र और दरवाज़े

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

दो








अजीब उससे भी रिश्ता है क्या किया जाए
वो सिर्फ़ ख्वाबों मे मिलता है क्या किया जाए

जहां-जहां तेरे मिलने का है गुमान वहां
न ज़िंदगी है न रस्ता है क्या किया जाए

ग़लत नहीं मुझे मरने का मशविरा उसका
वो मेरा दर्द समझता है क्या किया जाए

किसी पे अब किसी ग़म का असर नहीं होता
मगर ये दिल है कि दुखता है क्या किया जाए

कमी न की थी तवज़्ज़ों मे आपने लेकिन
हमारा ज़ख़्म ही गहरा है क्या किया जाए

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

Monday, July 6, 2009

स्व: शाहिद कबीर की ग़ज़लें









जन्म: मई 1932
निधन: मई 2001

शाहिद कबीर बहुत मशहूर शायर थे . इनके तीन ग़ज़ल संग्रह "चारों और"" मिट्टी के मकान" और "पहचान" प्रकाशित हुए थे. मुन्नी बेग़म से लेकर जगजीत सिंह तक हर ग़ज़ल गायक ने इनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है . इन्होंने कई फिल्मों के लिए नग़मे लिखे.इनके सपुत्र समीर कबीर की बदौलत उनकी गज़लें हम तक पहुँची हैं .हमारी तरफ़ से यही श्रदांजली है इस अज़ीम शायर को जो आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी ग़ज़लें और नग़मे उन्हें हमेशा ज़िंदा रखेंगे.आज की ग़ज़ल पर इस अज़ीम शायर की 4 ग़ज़लें और कुछ अशआर हाज़िर हैं.


एक







हर आइने मे बदन अपना बेलिबास हुआ
मैं अपने ज़ख्म दिखाकर बहुत उदास हुआ

जो रंग भरदो उसी रंग मे नज़र आए
ये ज़िंदगी न हुई काँच का गिलास हुआ

मैं *कोहसार पे बहता हुआ वो झरना हूँ
जो आज तक न किसी के लबों की प्यास हुआ

करीब हम ही न जब हो सके तो क्या हासिल
मकान दोनो का हरचंद पास-पास हुआ

कुछ इस अदा से मिला आज मुझसे वो शाहिद.
कि मुझको ख़ुद पे किसी और का क़यास हुआ

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112



दो







तुमसे मिलते ही बिछ़ड़ने के वसीले हो गए
दिल मिले तो जान के दुशमन क़बीले हो गए

आज हम बिछ़ड़े हैं तो कितने रँगीले हो गए
मेरी आँखें सुर्ख तेरे हाथ पीले हो गए

अब तेरी यादों के नशतर भी हुए जाते हैं *कुंद
हमको कितने रोज़ अपने ज़ख़्म छीले हो गए

कब की पत्थर हो चुकीं थीं मुंतज़िर आँखें मगर
छू के जब देखा तो मेरे हाथ गीले हो गए

अब कोई उम्मीद है "शाहिद" न कोई आरजू
आसरे टूटे तो जीने के वसीले हो गए

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


तीन








तमाम उम्र मैं आसेब के असर मे रहा
कि जो कहीं भी नहीं था मेरी नज़र मे रहा

न कोई राह थी अपनी न कोई मंज़िल थी
बस एक शर्ते-सफ़र थी जो मैं सफ़र मे रहा

वही ज़मीं थी वही आसमां वही चहरे
मैं शहर -शहर मे भटका नगर-नगर मे रहा

सब अपने-अपने जुनूं की अदा से हैं मजबूर
किसी ने काट दी सहरा मे कोई घर मे रहा

किसे बताऎं कि कैसे कटे हैं दिन "शाहिद"
तमाम उम्र ज़ियां पेशा-ए-हुनर मे रहा

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112


चार







वो अपने तौर पे देता रहा सजा मुझको
हज़ार बार लिखा और मिटा दिया मुझको

ख़बर है अपनी न राहों कुछ पता मुझको
लिये चली है कोई दूर कि सदा मुझको

अगर है ज़िस्म तो छूकर मुझे यकीन दिला
तू अक्स है तो कभी आइना बना मुझको

चराग़ हूँ मुझे दामन की ओट मे ले ले
खुली हवा मे सरे-राह न जला मुझको

मेरी शिकस्त का उसको ग़ुमान तक न हुआ
जो अपनी फ़तह का टीका लगा गया मुझको

तमाम उम्र मैं साया बना रहा उसका
इस आरजू मैं कि वो मुड़के देखता मुझको

मेरे अलावा भी कुछ और मुझमें था "शाहिद"
बस एक बार कोई फिर से सोचता मुझको

बहरे-मजतस(मुज़ाहिफ़ शक्ल)
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

चंद अशआर:

बज गए रात के दो अब तो वो आने से रहे
आज अपना ही बदन ओढ़ के सिया जाए


क्या उनसे निकल जायेगी कमरे की उदासी
फुटपाथ पे बिकते हुए गुलदान बहोत हैं


अब बता तुझसे बिछड़ कर मैं कहाँ जाऊंगा
तुझको पाया था क़बीले से बिछड़कर अपने

दुशमनी में भी दोस्ती के लिए
राह एक दरमियान बनती है

नदी के पानी मे तदबीर बह गई घुलकर
वो अज़्म था जो पहाड़ों को चीर कर निकला


बस इक थकन के सिवा कुछ न मिला मंज़िल पर
सफ़र का लुत्फ़ जो मिलना था रहगुज़र मे मिला



*कोहसार-परबत,*कुंद-बेधार

Friday, June 26, 2009

सुरेन्द्र चतुर्वेदी की ग़ज़लें और परिचय











1955 मे अजमेर(राजस्थान) में जन्मे सुरेन्द्र चतुर्वेदी के अब तक सात ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वो आजकल मंबई फिल्मों मे पटकथा लेखन से जुड़े हैं.इसके इलावा भी इनकी छ: और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए इनकी एक ही बहर (बहरे-रमल) में चार ग़ज़लें.

एक








रात को तनहाइयों के साथ घर जाता हूँ मैं
अपने ही अहसास की आहट से डर जाता हूँ मैं

रूह मे तबदील हो जाता है मेरा ये बदन
जब किसी की याद में हद से गुज़र जाता हूँ मैं

मैं लहू से रेत पर लिक्खा हुआ इक नाम हूँ
ग़र कोई महसूस कर ले तो उभर जाता हूँ मैं

मैं हूँ शिद्दत खुशबुओं की प्यार से महकी हुई
छू ले कोई तो हवाओं मे बिखर जाता हूँ मैं

एक सूफ़ी की ग़ज़ल का शे’र हूँ मैं दोस्तो
बेखुदी के रास्ते दिल मे उतर जाता हूँ मैं

बंद आंखों से किया करता हूँ मैं लाखों सफ़र
लोग अक़्सर सोचते हैं कि किधर जाता हूँ मैं

अपने हिस्से की जिन्हें मैं नींद आया सौंपकर
ग़म है अक़्सर उनके ख्वाबों में भी मर जाता हूँ मैं

दर्द की दरगाह मे करता जियारत जब कभी
करके अशकों से वजू ख़ुद मे बिखर जाता हूँ मैं

दो









आसमां मुझसे मिला तो वो ज़रा सा हो गया
था समंदर मैं मगर बरसा तो प्यासा हो गया

ज़िंदगी ने बंद मुट्ठी इस तरह से खोल दी
ग़म की सारी वारदातों का खुलासा हो गया

नींद मे तुमने मुझे इस तरह आकर छू लिया
इक पुराना ख्वाब था लेकिन नया सा हो गया

जिस घड़ी महसूस तुझको दिल मेरा करने लगा
उम्र मे शामिल मेरे जैसे नशा सा हो गया

अजनबी अहसास मुझको दर्द के दर पर मिला
साथ जब रोये तो वो मुझसे शनासा हो गया

उसके ग़म अलफ़ाज़ की उंगली पकड़कर जब चले
दर्द का ग़ज़लों मे मेरी तर्जुमा सा हो गया

तीन







मत चिरागों को हवा दो बस्तियाँ जल जायेंगी
ये हवन वो है कि जिसमें उँगलियां जल जायेंगी

मानता हूँ आग पानी में लगा सकते हैं आप
पर मगरमच्छों के संग में मछलियाँ जल जायेंगी

रात भर सोया नहीं गुलशन यही बस सोचकर
वो जला तो साथ उसके तितलियाँ जल जायेगीं

जानता हूँ बाद मरने के मुझे फूँकेंगे लोग
मैं मगर ज़िंदा रहूँगा लकड़ियाँ जल जायेंगी

उसके बस्ते में रखी जब मैंने मज़हब की किताब
वो ये बोला अब्बा मेरी कापियाँ जल जायेंगी

आग बाबर की लगाओ या लगाओ राम की
लग गई तो आयतें चौपाइयाँ जल जायेंगी

चार









ये नहीं कि नाव की ही ज़िन्दगी खतरे में है
दौर है ऐसा कि अब पूरी नदी खतरे में है

बच गए मंज़र सुहाने फर्क क्या पड़ जाएगा
जबकि यारों आँख की ही रोशनी खतरे में है

अब तो समझो कौरवों की चाल नादां पाँडवों
होश में आओ तुम्हारी द्रोपदी खतरे में है

अपने बच्चों को दिखाओगे कहाँ अगली सदी
जी रहे हो जिसमें तुम वो ही सदी खतरे में है

मंदिरों और मस्जिदों को घर के भीतर लो बना
वरना खतरे में अज़ाने आरती खतरे में है

ना तो नानक ना ही ईसा, राम ना रहमान ही
पूजता है जो इन्हें वो आदमी ख़तरे में है

Monday, June 15, 2009

डी.के."मुफ़लिस" की ग़ज़लें और परिचय













1957 में पटियाला (पंजाब) मे जन्मे डी.के. सचदेवा जिनका तख़ल्लुस "मुफ़लिस" है , आजकल लुधियाना में बैंक मे कार्यरत हैं.शायरी मे कई सम्मान इन्होंने अर्जित किये हैं जैसे दुशयंत कुमार सम्मान, उपेन्द्र नाथ "अशक" सम्मान और समय-समय पर पत्र और पत्रिकाओं मे छपते रहे हैं. इनकी तीन ग़ज़लें आज की ग़ज़ल के पाठकों के लिए.

एक.










हादिसों के साथ चलना है
ठोकरें खा कर संभलना है

मुश्किलों की आग में तप कर
दर्द के सांचों में ढलना है

हों अगर कांटे भी राहों में
हर घडी बे-खौफ चलना है

जो अंधेरों को निगल जाए
बन के ऐसा दीप जलना है

वक़्त की जो क़द्र भूले, तो
जिंदगी भर हाथ मलना है

हासिले-परवाज़ हो आसाँ
रुख हवाओं का बदलना है

इन्तेहा-ए-आरजू बन कर
आप के दिल में मचलना है

जिंदगी से दोस्ती कर लो
दूर तक जो साथ चलना है

रात भर तू चाँद बन 'मुफलिस'
सुब्ह सूरज-सा निकलना है

दो.







वो भली थी या बुरी अच्छी लगी
ज़िन्दगी जैसी मिली अच्छी लगी

बोझ जो दिल पर था घुल कर बह गया
आंसुओं की ये नदी अच्छी लगी

चांदनी का लुत्फ़ भी तब मिल सका
जब चमकती धूप भी अच्छी लगी

जाग उट्ठी ख़ुद से मिलने की लगन
आज अपनी बेखुदी अच्छी लगी

दोस्तों की बेनियाज़ी देख कर
दुश्मनों की बेरुखी अच्छी लगी

आ गया अब जूझना हालात से
वक़्त की पेचीदगी अच्छी लगी

ज़हन में 'मुफलिस' उजाला छा गया
इल्मो-फ़न की रौशनी अच्छी लगी

तीन








रहे क़ायम जहाँ में प्यार प्यारे
फले-फूले ये कारोबार प्यारे

सुकून ओ चैन , अम्नो-आश्ती हो
सदा खिलता रहे गुलज़ार प्यारे

जियो ख़ुद और जीने दो सभी को
यही हो ज़िंदगी का सार प्यारे

हमेशा ही ज़माने से शिकायत
कभी ख़ुद से भी हो दो-चार प्यारे

शऊरे-ज़िंदगी फूलों से सीखो
करो तस्लीम हंस कर ख़ार प्यारे

लहू का रंग सब का एक-सा है
तो फिर आपस में क्यूं तक़रार प्यारे

किसी को क्या पड़ी सोचे किसी को
सभी अपने लिए बीमार प्यारे

बुजुर्गों ने कहा, सच ही कहा है
भंवर-जैसा है ये संसार प्यारे

तुम्हें जी भर के अपना प्यार देगी
करो तो ज़िंदगी से प्यार प्यारे

हुआ है मुब्तिला-ए-शौक़ 'मुफलिस'
नज़र आने लगे आसार प्यारे.

Saturday, June 13, 2009

सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है







इस बार का मिसरा श्री द्विजेन्द्र "द्विज" जी की ग़ज़ल से लिया गया है.

नया मिसरा-ए-तरह "सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है"

काफ़िया: तड़पाता, जाता, घबराता आदि
रदीफ़: है

ये बह्रे-मुतक़ारिब की एक मुज़ाहिफ़ शक्ल है जिसके अरकान इस तरह से हैं.
फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन , फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े’लुन फ़े
22 22 2 2 2 2 , 22 22 22 2
नोट: हर गुरू के स्थान पर दो लघु आ सकते हैं सिवाय आठवें गुरू के.

पंख कतर कर जादूगर जब, चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

पूरी ग़ज़ल जिसमे से ये मिसरा लिया गया:

पंख कतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है

जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है

दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है

प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती-गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है

सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पूछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताण्डव-सा डमरू कौन बजाता है

‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है

इसी बह्र मे चंद और ग़ज़लें.

मीर तक़ी मीर

पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

चारागरी बीमारि-ए-दिल की रस्मे-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वरना दिलबर-ए-नादां भी इस दर्द का चारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत, एक से वाक़िफ़ इनमें नहीं
और तो सब कुछ तंज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

मीर तकी मीर इसी बह्र मे:

उलटी हो गयीं सब तदबीरें कुछ ना दवा ने काम किया
देख़ा इस बीमारि-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अहदे जवानी रो-रो काटी ,पीर में लें आखें मूँद
यानी रात बहुत थे जागे , सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करे हैं , हमको बस बदनाम किया

या के सुफ़ेद-ओ-स्याह में हम को दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया , या दिन को ज्यूं त्यूं शाम किया

मीर के दीन-ओ-मजहब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
कश्का खींचा , दैर में बैठा , कब का तर्क इस्लाम किया

फिर मीर साहब

दिल की बात कही नहीं जाती चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है

सुर्ख कभू है आँसू हो के ज़र्द कभू है मुंह मेरा
क्या क्या रंग मुहब्बत के हैं ये भी एक ज़माना है

फुर्सत है याँ कम रहने की बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोलो, बज्म-ए-जहाँ अफ़साना है

तेग़ तले ही उस के क्यों ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी ख़ाक की ओर झुकाना है

और एक बहुत ही दिलकश और मशहूर नग़्मा भी इसी बह्र मे है:

एक था गुल और एक थी बुलबुल दोनो चमन में रहते थे
है ये कहानी बिलकुल सच्ची’मेरे नाना कहते थे
एक था गुल और ...
बुलबुल कुछ ऐसे गाती थी’ जैसे तुम बातें करती हो
वो गुल ऐसे शर्माता था,जैसे मैं घबरा जाता हूँ
बुलबुल को मालूम नही था;गुल ऐसे क्यों शरमाता था
वो क्या जाने उसका नगमा’गुल के दिल को धड़काता था
दिल के भेद ना आते लब पे;ये दिल में ही रहते थे
एक था गुल और ...

और

दूर है मंज़िल राहें मुशकिल आलम है तनहाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का.(शकील)

नोट: अपनी ग़ज़लें भेजने में जल्दबाजी न करें. अच्छी तरह पहले परवरिश कर लें . बार-बार सुधार कर के भेजने से अच्छा है थोडा देरी से भेजें और भर्ती के अशआर से गुरेज़ करें. आप २०-२५ दिन के अंदर हमें ग़ज़लें भेज सकते हैं.

Tuesday, June 9, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता - अंतिम छ: ग़ज़लें









मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर अतिंम छ: ग़ज़लें.सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया . ये सब द्विज जी के आशीर्वाद से मुमकिन हो रहा है. अगला मिसरा-ए-तरह जल्द दिया जायेगा.नये शायरों को भी हम मौका दे रहे हैं ताकि वो भी आगे आ सकें .


पवनेन्द्र ‘पवन’

अपना-अपना ख़ुदा नहीं होता
ख़ून इतना बहा नहीं होता

सुन के भी अब तो हर तरफ़ चीख़ें
दर्द दिल में ज़रा नहीं होता

कौन करता सुमन-सा दिल अर्पित
तू अगर देवता नहीं होता

चल यक़ीं करके हमसफ़र के साथ
शख़्स हर बेवफ़ा नहीं होता

आग झुलसा के ठूँठ छोड़ गई
अब ये जंगल हरा नहीं नहीं होता

मोजिज़ा होता है मगर सुनिए
मोजिज़ा हर दफ़ा नहीं होता

ये भरे पेट किलबिलाता है
भूख में फ़लसफ़ा नहीं होता

दिल जो लोगे तो दर्द भी लोगे
दर्द दिल से जुदा नहीं होता

जो समझता नहीं ख़ुदा ख़ुद को
आदमी गुमशुदा नहीं होता

यार बन सकता है अदू भी तो
क्या ज़हर भी दवा नहीं होता

होते काँटे न मन की बगिया में
दिल अगर फूल-सा नहीं होता

हो गये सब को हम पराए अब
कोई हम से ख़फ़ा नहीं होता

साथ रहता है जब तलक वो ‘पवन’
मुझको मेरा पता नहीं होता



जगदीश रावतानी आनंदम

दिल अगर फूल सा नही होता
यू किसी ने छला नही होता

था ये बेहतर कि कत्ल कर देते
रोते रोते मरा नही होता

दिल में रहते है दिल रुबाओं के
आशिकों का पता नही होता

ज़िन्दगी ज़िन्दगी नही तब तक
इश्क जब तक हुआ नही होता

होश में रह के ज़िन्दगी जीता
तो यू रुसवा हुआ नही होता

जुर्म हालात का नतीजा हैं
आदमी तो बुरा नही होता

ख़ुद से उल्फत जो कर नही सकता
वो किसी का सगा नही होता

क्यों ये दैरो हरम कभी गिरते
आदमी गर गिरा नही होता



दर्पन शाह दर्पन

हुस्न गुलशन हुआ नहीं होता
दिल अगर फूल सा नही होता.

आदमी ने कहा नहीं होता
तो खुदा भी खुदा नहीं होता

जाते जाते बता गया वो मुझे
दूर माने जुदा नहीं होता

अक्स शायद बदल गया मेरा
आइना बेवफा नहीं होता

आँख से खूँ टपक गया 'ग़ालिब '
अब रगों में जमा नहीं होता



प्रकाश अर्श

रंग-ओ-बू पर फ़िदा नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

आप आकर गए क्यों महफ़िल से
इस तरह हक़ अदा नहीं होता

सब से अक्सर यही मैं कहता हूँ
बा-वफ़ा बे-वफ़ा नहीं होता

कौन कहता है कुछ नहीं मिलता
इश्क़ में क्या छुपा नहीं होता

दिल की कह तो मैं देता उनसे मगर
क्या करूं हौसला नहीं होता



देवी नांगरानी

शोर दिल में मचा नहीं होता
गर उसे कुछ हुआ नहीं होता

काश ! वो भी कभी बदल जाते
सोच में फासला नहीं होता

कुछ ज़मीं में रही कशिश होगी
वर्ना नभ यूँ झुका नहीं होता

झूठ के पाँव क्यों ठिठकते गर
देख सच, वो डरा नहीं होता

अपना नुक्सान यूँ न वो करता
तैश में आ गया नहीं होता

नज़रे-आतिश न होती बस्ती यूँ
मेरा दिल गर जला नहीं होता

दर्द 'देवी' का जानता कैसे
गम ने उसको छुआ नहीं होता



सतपाल ख्याल

अपना सोचा हुआ नहीं होता
वर्ना होने को क्या नहीं होता

उसकी आदत फ़कीर जैसी है
कुछ भी कह लो खफ़ा नहीं होता

न मसलते यूँ संग दिल इसको
दिल अगर फूल-सा नहीं होता.

याद आते न शबनमी लम्हे
ज़ख़्म कोई हरा नहीं होता

ख्वाब मे होती है फ़कत मंज़िल
पर कोई रास्ता नहीं होता

इश्क़ बस एक बार होता है
फिर कभी हौसला नहीं होता

हद से गुज़रे हज़ार बार भले
दर्द फिर भी दवा नहीं होता

दोस्ती है तो दोस्ती मे कभी
कोई शिकवा गिला नहीं होता

मुफ़लिसी में ख़याल अब हमसे
कोई वादा वफ़ा नहीं होता

Monday, June 8, 2009

दिल अगर फूल सा नहीं होता- तीसरी किश्त









मिसरा-ए-तरह "दिल अगर फूल सा नहीं होता" पर पाँच और ग़ज़लें.अंतिम किश्त अभी बाकी है.


ग़ज़ल: एम.बी. शर्मा ‘मधुर’

गर मुक़द्दर लिखा नहीं होता
कोई रुस्तम छुपा नहीं होता

कौन जाने कि आए कब कैसे
मौत का कुछ पता नहीं होता

कोई रौशन-ज़मीर कैसे हो
पेट किसके लगा नहीं होता

बुत-परस्ती तो क़ुफ़्र हो शायद
बुतशिकन भी ख़ुदा नहीं होता

हाल मेरा न पूछते आकर
ज़ख़्म फिर से हरा नहीं होता

जानते हैं शराब दोज़ख़ है
नश्अ हर आप-सा नहीं होता

वक़्त नाज़ुक़ वही जहाँ कोई
बीच का रास्ता नहीं होता



ग़ज़ल : पुर्णिमा वर्मन

काश सूरज ढला नहीं होता
दिन मेरा अनमना नहीं होता

धूप में मुस्कुरा नहीं पाते
दिल अगर फूल सा नहीं होता

मौसमों ने हमें सिखाया है
रोज़ दिन एक सा नहीं होता

राह खुद ही निकल के आती है
जब कोई रास्ता नहीं होता

ज़िंदगी का सफ़र न कट पाता
वो अगर हमनवा नहीं होता



ग़ज़ल: डी.के. मुफ़लिस की ग़ज़ल

ग़म में गर मुब्तिला नहीं होता
मुझको मेरा पता नहीं होता

जो सनम-आशना नहीं होता
उसको हासिल खुदा नहीं होता

दर्द का सिलसिला नहीं होता
तू अगर बेवफा नहीं होता

वक़्त करता है फैसले सारे
कोई अच्छा-बुरा नहीं होता

मैं अगर हूँ तो कुछ अलग क्या है
मैं न होता,तो क्या नहीं होता

दूसरों का बुरा जो करता है
उसका अपना भला नहीं होता

जब तलक आग में न तप जाये
देख , सोना खरा नहीं होता

क्यूं भला लोग डूबते इसमें
इश्क़ में गर नशा नहीं होता

हाँ ! जुदा हो गया है वो मुझसे
क्या कोई हादिसा नहीं होता ?

सीख लेता जो तौर दुनिया के
कोई मुझसे खफा नहीं होता

ये ज़मीं आसमान हो जाये
ठान ही लो तो क्या नहीं होता

जो न गुज़रा तुम्हारी सोहबत में
पल वही खुश-नुमा नहीं होता

कैसे निभती खिजां के मौसम से
दिल अगर फूल-सा नहीं होता

जिंदगी क्या है, चंद समझौते
क़र्ज़ फिर भी अदा नहीं होता

हौसला-मंद कब के जीत चुके
काश!मैं भी डरा नहीं होता

बे-दिली , बे-कसी , अकेलापन
तू नहीं हो, तो क्या नहीं होता

डोर टूटेगी किस घड़ी 'मुफलिस'
कुछ किसी को पता नहीं होता



ग़ज़ल: चन्द्रभान भारद्वाज

प्यार में यूँ दिया नहीं होता;
दिल अगर फूल सा नहीं होता

प्यार की लौ सदा जली रहती
इसका दीया बुझा नहीं होता

एक सौदा है सिर्फ घाटे का
प्यार में कुछ नफा नहीं होता

रात करवट लिये गुजरती है,
दिन का कुछ सिलसिला नहीं होता

ज़िन्दगी भागती ही फिरती है
प्यार का घर बसा नहीं होता

लोग सदियों की बात करते हैं
एक पल का पता नहीं होता

पहले हर बात का भरोसा था
अब किसी बात का नहीं होता

प्यार का हर धड़ा बराबर है
कोई छोटा बड़ा नहीं होता

पूरी लगती न 'भारद्वाज' गज़ल
प्यार जब तक रमा नहीं होता



ग़ज़ल: ख़ुर्शीदुल हसन नय्यर

ग़म ग़ज़ल मे ढला नहीं होता
दिल अगर फूल सा नहीं होता

होता है सिर्फ वो मेरे दिल में
जब कोई दूसरा नहीं होता

कौन पढ़ता इबारतें दिल की
चेहरा ग़र आइना नहीं होता

सिर्फ़ इल्ज़ाम और नफरत से
हल कोई मसअला नहीं होता

हम से सब कुछ बयान होता है
पर बयाँ मुद्दआ नहीं होता

हम न होते तो गेसु-ए- सुम्बुल
इतना सँवरा- सजा नहीं होता

याद रखना कि भूल ही जाना
बस में कुछ बा-खु़दा नहीं होता

चाहने से किसी के हम सफरो
कभी अच्छा-बुरा नहीं होता

ज़ख्म-ए-दिल कैकटस है सहरा का
कब भला ये हरा नहीं होता

हम जुनूं केश से कभी नय्यर
इश्क का हक़ अदा नहीं