Saturday, October 10, 2015

शब्द और ग़ज़ल

ग़ज़ल

ग़ज़ल क्या है, अरूज क्या है ये सब बाद में पहले हम "शब्द" पर चर्चा करेंगे कि शब्द क्या है? शब्द एक ध्वनि है, एक आवाज़ है, शब्द का अपना एक आकार होता है, जब हम उसे लिखते हैं , लेकिन जब हम बोलते हैं वो एक ध्वनि मे बदल जाता है, तो शब्द का आकार भी है और शब्द निरकार भी है और इसी लिए शब्द को परमात्मा भी कहा गया जो निराकार भी है और हर आकार भी उसका है. तो शब्द साकार भी है और निराकार भी. हमारा सारा काव्य शब्द से बना है और शब्द से जो ध्वनि पैदा होती है उस से बना है संगीत अत: हम यह कह सकते हैं कि काव्य से संगीत और संगीत से काव्य पैदा हुआ, दोनों एक दुसरे के पूरक हैं. काव्य के बिना संगीत और संगीत के बिना काव्य के कल्पना नही कर सकते. और हम काव्य को ऐसे भी परिभाषित कर सकते हैं कि वो शब्द जिन्हें हम संगीत मे ढाल सकें वो काव्य है तो ग़ज़ल को भी हम ऐसे ही परिभाषित कर सकते हैं कि काव्य की वो विधा जिसे हम संगीत मे ढाल सकते हैं वो गजल है. ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ चाहे कुछ भी हो अन्य विधाओं कि तरह ये भी काव्य की एक विधा है .हमारा सारा काव्य, हमारे मंत्र, हमारे वेद सब लयबद्ध हैं सबका आधार छंद है.

अब संगीत तो सात सुरों पर टिका है लेकिन शब्द या काव्य का क्या आधार है ? इसी प्रश्न का उत्तर हम खोजेंगे.

हिंदी काव्य शास्त्र का आधार तो पिंगल या छंद शास्त्र है लेकिन ग़ज़ल क्योंकि सबसे पहले फ़ारसी में कही गई इसलिए इसका छंद शास्त्र को इल्मे-अरुज कहते हैं. एक बात आप पल्ले बाँध लें कि बिना बहर के ग़ज़ल आज़ाद नज़्म होती है ग़ज़ल कतई नहीं और आज़ाद नज़्म का काव्य में कोई वजूद नहीं है. हम शुरु करते हैं वज़्न से. सबसे पहले हमें शब्द का वज़्न करना आना चहिए. उसके लिए हम पहले शब्द को तोड़ेंगे, हम शब्द को उस अधार पर तोड़ेंगे जिस आधार पर हम उसका उच्चारण करते हैं. शब्द की सबसे छोटी इकाई होती है वर्ण. तो शब्दों को हम वर्णों मे तोड़ेंगे. वर्ण वह ध्वनि हैं जो किसी शब्द को बोलने में एक समय मे हमारे मुँह से निकलती है और ध्वनियाँ केवल दो ही तरह की होती हैं या तो लघु (छोटी) या दीर्घ (बड़ी). अब हम कुछ शब्दों को तोड़कर देखते है और समझते हैं, जैसे:


"आकाश"
ये तीन वर्णो से मिलकर बना है.
आ+ का+श.

आ: ये एक बड़ी आवाज़ है.
का: ये एक बड़ी आवाज़ है

श: ये एक छोटी आवाज़ है.

और नज़र( न+ज़र)
न: ये एक छोटी आवाज़ है

ज़र: ये एक बड़ी आवाज़ है.

छंद शास्त्र मे इन लंबी आवाज़ों को गुरु और छोटी आवाजों को लघु कहते है और लंबी आवाज के लिए "s" और छोटी आवाज़ के लिए "I" का इस्तेमाल करते हैं. इन्हीं आवाजों के समूह से हिंदी में गण बने. फ़ारसी में लंबी आवाज़ या गुरु को मुतहर्रिक और छोटी या लघु को साकिन कहते हैं .इसी आधार पर हिंदी में गण बने और इसी आधार पर फ़ारसी मे अरकान बने.यहाँ हम लघु और गुरु को दर्शने के लिए 1 और 2 का इस्तेमाल करेंगे.जैसे:


सितारों के आगे जहाँ और भी हैं.
पहले इसे वर्णों मे तोड़ेंगे. यहाँ उसी अधार पर इन्हें तोड़ा गया जैसे उच्चारण किया जाता है.
सि+ता+रों के आ+गे ज+हाँ औ+र भी हैं.

अब छोटी और बड़ी आवाज़ों के आधार पर या आप कहें कि गुरु और लघु के आधार पर हम इन्हें चिह्नित कर लेंगे. गुरु के लिए "2 " और लघु के लिए " 1" का इस्तेमाल करेंगे.

जैसे:

सि+ता+रों के आ+गे य+हाँ औ+र भी हैं.

(1+2+2 1 + 2+2 1+2+2 +1 2 + 2)
अब हम इस एक-दो के समूहों को अगर ऐसे लिखें.

122 122 122 122

तो ये 122 क समूह एक रुक्न बन गया और रुक्न क बहुवचन अरकान होता है. इन्ही अरकनों के आधार पर फ़ारसी मे बहरें बनीं.और भाषाविदों ने सभी सम्भव नमूनों को लिखने के लिए अलग-अलग बहरों का इस्तेमाल किया और हर रुक्न का एक नाम रख दिया जैसे फ़ाइलातुन अब इस फ़ाइलातुन का कोई मतलब नही है यह एक निरर्थक शब्द है. सिर्फ़ वज़्न को याद रखने के लिए इनके नाम रखे गए.आप इस की जगह अपने शब्द इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे फ़ाइलातुन की जगह "छमछमाछम" भी हो सकता है, इसका वज़्न (भार) इसका गुरु लघु की तरतीब.

ये आठ मूल अरकान हैं , जिनसे आगे चलकर बहरें बनीं.

फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
फ़-ऊ-लुन(1-2-2)

अब भाषाविदों ने यहाँ कुछ छूट भी दी है आप गुरु वर्णों को लघु में ले सकते हैं जैसे मेरा (22) को मिरा(12) के वज्न में, तेरा(22) को तिरा(12)भी को भ, से को स इत्यादि. और आप बहर के लिहाज से कुछ शब्दों की मात्राएँ गिरा भी सकते हैं और हर मिसरे के अंत मे एक लघु वज़्न में ज्यादा हो सकता है. अनुस्वर वर्णों को गुरु में गिना जाता है जैसे:बंद(21) छंद(21) और चंद्र बिंदु को तकतीअ में नहीं गिनते जैसे: चाँद (21)संयुक्त वर्ण से पहले लघु को गुरु मे गिना जाता है जैसे:
सच्चाई (222)
अब फ़ारसी मे 18 बहरों बनाई गईं जो इस प्रकार है:

1.मुत़कारिब(122x4) चार फ़ऊलुन
2.हज़ज(1222x4) चार मुफ़ाईलुन
3.रमल(2122x4) चार फ़ाइलातुन
4.रजज़:(2212) चार मसतफ़इलुन
5.कामिल:(11212x4) चार मुतफ़ाइलुन
6 बसीत:(2212, 212, 2212, 212 )मसतलुन फ़ाइलुऩx2
7तवील:(122, 1222, 122, 1222) फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन x2
8.मुशाकिल:(2122, 1222, 1222) फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
9. मदीद : (2122, 212, 2122, 212) फ़ाइलातुन फ़ाइलुनx2
10. मजतस:(2212, 2122, 2212, 2122) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुनx2
11.मजारे:(1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
12 मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221) मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
13 वाफ़िर : (12112 x4) मुफ़ाइलतुन x4 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
14 क़रीब ( 1222 1222 2122 ) मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
15 सरीअ (2212 2212 2221) मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
16 ख़फ़ीफ़:(2122 2212 2122) फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में .
17 जदीद: (2122 2122 2212) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
18 मुक़ातज़ेब (2221 2212 2221 2212) मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
19. रुबाई
यहाँ पर रुककर थोड़ा ग़ज़ल की बनावट के बारे में भी समझ लेते हैं.

ग़ज़ले के पहले शे'र को मतला , अंतिम को मकता जिसमें शायर अपना उपनाम लिखता है. एक ग़ज़ल मे कई मतले हो सकते हैं और ग़ज़ल बिना मतले के भी हो सकती है. ग़ज़ल में कम से कम तीन शे'र तो होने ही चाहिए. ग़ज़ल का हर शे'र अलग विषय पर होता है एक विषय पर लिखी ग़ज़ल को ग़ज़ले-मुसल्सल कहते हैं. वह शब्द जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे'र के दूसरे मिसरे मे रदीफ़ से पहले आता है उसे क़ाफ़िया कहते हैं. ये अपने हमआवाज शब्द से बदलता रहता है.क़ाफ़िया ग़ज़ल की जान(रीढ़)होता है. एक या एकाधिक शब्द जो हर शे'र के दूसरे मिसरे मे अंत मे आते हैं, रदीफ़ कहलाते हैं. ये मतले में क़ाफ़िए के बाद दो बार आती है. बिना रदीफ़ के भी ग़ज़ल हो सकती है जिसे ग़ैर मरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं.पुरी ग़ज़ल एक ही बहर में होती है. बहर को जानने के लिए हम उसके साकिन और मुतहरिर्क को अलग -अलग करते हैं और इसे तकतीअ करना कहते हैं.बहर के इल्म को अरुज़(छ्न्द शास्त्र) कहते हैं और इसका इल्म रखने वाले को अरुज़ी(छन्द शास्त्री).यहाँ पर एक बात याद आ गई द्विज जी अक्सर कहते हैं कि ज़्यादा अरूज़ी होने शायर शायर कम आलोचक ज़्यादा हो जाता है. बात भी सही है शायर को ज़्यादा अरुज़ी होने की ज़रुरत नहीं है उतना काफ़ी है जिससे ग़ज़ल बिना दोष के लिखी जा सके. बाकी ये काम तो आलोचकों का ज्यादा है. यह तो एक महासागर है अगर शायर इसमें डूब गया तो काम गड़बड़ हो जाएगा.
अब एक ग़ज़ल को उदाहरण के तौर पर लेते हैं और तमाम बातों को फ़िर से समझने की कोशिश करते हैं.द्विज जी
की एक ग़ज़ल है :

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नहीं होते.
अब इस ग़ज़ल में पाँच अशआर हैं.
यह शे'र मतला (पहला शे'र) है:
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते

मक़सद, सरहद, बरगद इत्यादि ग़ज़ल के क़ाफ़िए हैं.
"नहीं होते" ग़ज़ल की रदीफ़ है

"मक़सद नहीं होते" "सरहद नहीं होते" ये ग़ज़ल की ज़मीन है.
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर-घने बरगद नही होते

ये ग़ज़ल का मक़ता (आख़िरी शे'र) है.

और बहर का नाम है "हजज़"

वज़्न है: 1222x4

अँधेरे चन्द लोगों का अगर मक़सद नहीं होते

यहाँ पर अ के उपर चंद्र बिंदू है सो उसे लघु के वज़न में लिया है, जैसा हमने उपर पढ़ा.

"न" हमेशा लघु के वज्न में लिया जाता है.
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं
1222 1222 1222 1222
यहाँ पर ने" को लघु के वज्न में लिया है.और हमसे को हमस के वज्न में लिया है.
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते
इस मिसरे में "तो" को लघु के वज्न में लिया है.

बहुत कुछ सीखने को है , ये इल्म तो एक साग़र है . आप उम्र भर सीखते हैं और शुरु में हमने चर्चा की थी कि शब्द परमात्मा है तो परमात्मा को पाने के लिए हम सब जानते हैं कि गुरु का क्या महत्व है. गुरु के बिना ये विधा सीखना मु्श्किल है लेकिन असंभव नहीं. मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि गुरु मिलना भी सबके नसीब मे नहीं होता लेकिन गुरु नहीं है तो हताश होकर लिखना छोड़ देना भी ग़लत है.ये शायरी कोई गणित नहीं है जो किसी को सिखाई जाए कोई भी इसे सीखकर अगर कहे मैं शायर बन जाऊँगा तो वो धोखे में है, ये तो एक तड़प है जो हर सीने मे नहीं होती. बहरें अपने आप आ जाती हैं जब ख़्याल बेचैन होता है.निरंतर अभ्यास लाज़िम है ,यह नहीं कि आज ग़ज़ल लिखो और सोचो कि कल हम शायर बन जाएंगे तो ग़लत होगा. कितने कच्चे चिट्ठे लिखे जाते हैं फाड़े जाते हैं फिर जाकर कहीं माँ सरस्वती मेहरबान होती हैं. आप इस फ़ाइलातुन से घबराए नहीं. बहरें बनने से पहले भी बहरें थीं वो तो एक ताल है जो शायर के अचेतन मे सोई होती है. जब बहर का पता नहीं था उस वक्त की ग़ज़लें निकाल कर देखता हूँ तो कई ग़ज़लें ऐसी हैं जो बहर मे लिखी गईं थी . आज जब बह्र का पता है तो अब पता चल गया यार ये तो इस बहर मे है. कई शायर ऐसे भी हुए हैं जिन्हें इस का इल्म कम था लेकिन उनकी सारी शायरी वज्न मे है. जब ये बहरें सध जाती है तो सब आसान हो जाता है. बस दो चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं मश्क(अभ्यास) और सब्र (धैर्य)|

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Friday, October 9, 2015

ग़ज़ल का इतिहास और भाषा

तकरीबन १००० साल से भी पहले ग़ज़ल का जन्म ईरान मे हुआ और वहाँ की फ़ारसी भाषा मे ही इसे लिखा या कहा गया. माना जाता है कि ये "कसीदे" से ही निकली. कसीदे राजाओं की तारीफ मे कहे जाते थे और शायर अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए शासकों की झूठी तारीफ़ करता था और विलासी राजाओं को वही सुनाता था जिससे वो खुश होते थे.शराब , कबाब और शबाब के साथ राजा कसीदे सुनते थे और विलासी राजा औरतों के ज़िक्र से खुश होते थे तो शायर औरतॊं और शराब का ज़िक्र ही ग़ज़लों मे करने लगे वो चाहकर भी जनता का दुख-दर्द बयान नही कर सकते थे.तो ग़ज़ल का मतलब ही औरतों के बारे मे ज़िक्र हो गया.यही पर इसका बहर शास्त्र बना जो फारसी में था.

मुग़ल शासक जब हिंदोस्तान आए तो अपने साथ फ़ारसी संस्कर्ति भी लाए और जहाँ,-जहाँ उन्होने राज किया वहाँ की अदालती और राजकीय भाषा बदल कर फारसी कर दी इस से पहले यहाँ पर शौरसेनी अपभ्रंश भाशा का इस्तेमाल होता था जो आम बोलचाल की भाषा न होकर किताबी भाषा थी जो संस्कर्त से होकर निकली थी.जब अदालती भाषा और सरकारी काम काज की भाषाफ़ारसी बनी तो लोगों को मज़बूरन फ़ारसी सीखनी पड़ी.यहाँ के कवियों ने भी मज़बूरन इसे सीखा और ग़ज़ल से हाथ मिलाया और इसका बहर शास्त्र सीखा जिसे अरूज कहा जाता था. इसका वही रूप जो इरान मॆ था यहाँ भी वैसा ही रहा.यहाँ एक बात का ज़िक्र और करना चाहता हूँ ये सब शासक मुस्लिम थे सो इन्होनें मुस्लिम धर्म और फ़ारसी का खूब प्रचार किया् ये सिलसिला सदियों चलता रहा.

अब बात करते हैं12वीं शताब्दी की, दिल्ली मे अबुल हसन यमीनुद्दीन ख़ुसरो देहलवी(1253-1325) ने लीक से हटकर साहित्य को खड़ी बोली (या आम बोली जो उस वक्त दिल्ली के आस-पास बोली जाती थी) मे लिखा और वे फ़ारसी के विद्वान भी थे इन्होंने फ़ारसी और हिंदी मे अनूठे प्रयोग किए उस वक्त बोली जाने वाली भाषा को खुसरो ने हिंदवी कहा.

ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल
दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ
न लेहु काहे लगाये छतियाँ

चूँ शम्म-ए-सोज़ाँ, चूँ ज़र्रा हैराँ
हमेशा गिरियाँ, ब-इश्क़ आँ माह
न नींद नैना, न अंग चैना
न आप ही आवें, न भेजें पतियाँ

यकायक अज़ दिल ब-सद फ़रेबम
बवुर्द-ए-चशमश क़रार-ओ-तस्कीं
किसे पड़ी है जो जा सुनाये
प्यारे पी को हमारी बतियाँ

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़
वरोज़-ए-वसलश चूँ उम्र कोताह
सखी पिया को जो मैं न देखूँ
तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ

यहीं से आधुनिक साहित्य का जन्म हुआ और आम भाषा का इस्तेमाल शुरू हुआ . खुसरो ने पूरे
हिंदोस्तान मे फ़ारसी का प्रचार किया और फ़ारसी धीरे-धीरे फ़ैलती गई . जब ये अदालतों की भाषा बनी
तो लोगों को इसे सीखना पड़ा.हम खुसरो को पहला गज़लगो भी कह सकते हैं.

अब बात करते हैं कि ये उर्दू क्या है

'उर्दू' एक तुर्की लफ़्ज है जिसके अर्थ हैं : छावनी, लश्कर। 'मुअल्ला' अरबी लफ़्ज है जिसका अर्थ है : सबसे अच्छा। शाही कैंप, शाही छावनी, शाही लश्कर के लिए पहले 'उर्दू-ए-मुअल्ला' शब्द का इस्तेमाल शुरू हुआ। बाद में बादशाही सेना की छावनियों तथा बाज़ारों (लश्कर बाज़ारों) में हिन्दवी अथवा देहलवी का जो भाषा रूप बोला जाता था उसे 'ज़बाने-उर्दू-ए-मुअल्ला' कहा जाने लगा। बाद को जब यह जुबान फैली तो 'मुअल्ला' शब्द हट गया तथा 'ज़बाने उर्दू' रह गया। 'ज़बाने उर्दू' के मतलब 'उर्दू की जुबान' या अँगरेज़ी में 'लैंग्वेज ऑफ उर्दू'। बाद में इसी को संक्षेप में 'उर्दू' कहा जाने लगा। ये उस वक्त की एक मिली-जुली भाषा थी.फिर ये भाषा मुस्लिम समुदाये के साथ जोड़ दी गई ये काम 17 वीं शताब्दि मे अंग्रेजों के आने के बाद हुआ.इसी भाषा मे धर्म का प्रसार-प्रचार हुआ.इसी दौरान उर्दू अदालती भाषा बनी और आज तक हमारी अदालतों मे इसका इस्तेमाल देवनागरी लिपी मे होता है.

ये भाषा उस वक्त दिल्ली की साथ-साथ पूरे देश की भाषा थी जिसे उर्दू से पहले हिंदोस्तानी कहा जाता था और ये यहाँ के लोगों की आम बोल-चाल की भाषा थी जिसे सियासतदानों ने धर्म के साथ जोड़ दिया और ये मुस्लिमों की भाषा के रूप मे जानी जाने लगी. जबकि सच ये है कि खालिस हिंदिस्तानी भाषा थी जो दो लिपियों मे लिखी जाती थी. एक बोली की दो लिपियाँ थी.बोली एक थी लिपियाँ दो थी लेकिन सियासत ने इस मीठी ज़बान का गला घोंट दिया और हिंदी हिंदूओं की और उर्दू मुस्लिमों की भाषा बन गई.और इसी आधार पर आगे जाकर मुल्क का बँटबारा हुआ.

खैर! बापिस चलते हैं 17 वीं सदी मे. जैसे दिल्ली मे फ़ारसी और इस्लाम का प्रचार-प्रसार हुआ वैसे ही दक्षिण भारत मे भी फ़ारसी और इस्लाम पनपे.यहाँ शासकों और फ़ारसी सूफ़ी संतों ने फ़ारसी का प्रचार किया.ये कोई थोड़े समय मे नहीं हुआ सदियों मुस्लिम शासकों ने यहाँ राज किया.हमारी भाषा जिसे देवनागरी कहते थे वो हाशिए पर रही.लेकिन उसमे भी साहित्य की रचना होती रही .शाह वल्लीउल्ला उर्फ़ वली दक्कनी (1668 से 1744) औरंगाबाद के रहने वाले थे वली का बचपन औरंगाबाद मे बीता , बीस बरस की उम्र में वो अहमदाबाद आए जो उन दिनों तालीम और कल्चर का बड़ा केंद्र हुआ करता था। सन 1700 मे वली दिल्ली आए। यहाँ आकर उनकी शैली की खूब तारीफ़ हुई . वली उर्दू के पहले शायर माने गए.

वली:

सजन तुम सुख सेती खोलो नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता।
कि ज्यों गुल से निकसता है गुलाब आहिस्ता आहिस्ता।।

दिल को लगती है दिलरुबा की अदा
जी में बसती है खुश-अदा की अदा

यहाँ फ़िर ग़ज़ल गुलो-बुलबुल के फ़ारसी किस्से लेकर चलने लगी, जिनका हिंदोस्तान से कोई बास्ता न था.फ़ारसी मे लिखने की होड़ सी लग गई . मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 )ने इस विधा को नया रुतबा बख्शा.हालाँकि मीर ने भाषा को हल्का ज़रुर किया और सादगी भी बख्शी.

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

जब दिल्ली खतरे मे पड़ी तो शायर लखनऊ की तरफ गए और शायरी के दो केन्द्र बने लखनऊ और देहली.लेकिन जहाँ दिल्ली मे सूफ़ी शायरी हुई वहीं लखनऊ मे ग़ज़ल विलासता और इश्क-मुश्क का अभिप्राय बन गई.

दिल्ली मे उर्दू के चार स्तंभ : मज़हर,सौदा, मीर और दर्द ने ग़ज़ल के नन्हें से पौधे को एक फ़लदार शजर बना दिया.

दिल्ली स्कूल के चार महारथी थे:

1)मिर्ज़ा मज़हर जान जानां: ( 1699-1781 दिल्ली)
न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुझको वो दिमाग़-ओ-दिल रहा है
खुदा के वास्ते उसको ना टोको
यही एक शहर में क़ातिल रहा है
यह दिल कब इश्क़ के क़ाबिल रहा है

मिर्ज़ा मुहम्म्द रफ़ी सौदा:(1713-1781दिल्ली): इनका निधन लखनऊ मे हुआ.इन्हें छ: हज़ार रुपए हरेक साल बतौर वजीफ़ा नवाब से मिलता था.

दिल मत टपक नज़र से कि पाया ना जाएगा
यूँ अश्क फिर ज़मी से उठाया न जाएगा.


मीर तकी मीर (जन्म: 1723 निधन: 1810 आगरा )
असल मे यही ग़ज़ल के पिता थे. इन्होंने ही ग़ज़ल को रुतबा बख्शा.इन्हें खुदा-ए-सुखन कहा जाता है
और सब शायरों ने इनका शायरी का लोहा माना और इन्हें सब शायरॊं का सरदार कहा गया .ज्यादातर फ़ारसी मे ही लिखा.

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

इब्तिदा-ऐ-इश्क है रोता है क्या
आगे- आगे देखिए होता है क्या

उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया


ख़्वाजा मीर दर्द:(1721-1785) सूफ़ी ख्यालात वाला शायर था.

मेरा जी है जब तक तेरी जुस्तजू है|
ज़बान जब तलक है यही गुफ्तगू है|

तुहमतें चन्द अपने जिम्मे धर चले ।
जिसलिए आये थे हम सो कर चले ।।

ज़िंदगी है या कोई तूफान है,
हम तो इस जीने के हाथों मर चले

जग में आकर इधर उधर देखा|
तू ही आया नज़र जिधर देखा|

जान से हो गए बदन ख़ाली,
जिस तरफ़ तूने आँख भर के देखा|

तुम आज हंसते हो हंस लो मुझ पर ये आज़माइश ना बार-बार होगी
मैं जानता हूं मुझे ख़बर है कि कल फ़ज़ा ख़ुशगवार होगी|


दिल्ली मे दूसरे दौर के शायर:

अब ज़िक्र करते हैं दिल्ली में दूसरे दौर के शायरों का. जिनमे प्रमुख हैं
मोमिन, ज़ौक़ और गालिब इन्होंने ग़ज़ल की इस लौ को जलाए रखा. दिल्ली के आखिरी मुग़ल
बहादुर शाह ज़फ़र खुद शायर थे सो उन्होंने दिल्ली मे शायरी को बढ़ावा दिया.

शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक:(1789-1854): ये उस्ताद शायरों में शुमार किए जाते हैं, जिनके अनेक शागिर्दों ने अदबी दुनिया में अच्छा मुक़ाम हासिल किया है।

कहिए न तंगज़र्फ़ से ए ज़ौक़ कभी राज़
कह कर उसे सुनना है हज़ारों से तो कहिए


रहता सुखन से नाम क़यामत तलक है ज़ौक़
औलाद से तो है यही दो पुश्त चार पुश्त

मोमिन खां मोमिन(1800-1851): दिल्ली मे पैदा हुए और शायर होने के साथ-साथ ये हकीम भी थे.

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे


मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ 'ग़ालिब':जन्म: (27 दिसम्बर 1796 ,निधन: 15 फ़रवरी 1869 ): इस शायर के बारे मे लिखने की ज़रुरत नहीं है. हिंदोस्तान का बच्चा-बच्चा जानता है गा़लिब होने का अर्थ ही शायर होना हो गया है.

बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

इस शायर ने ग़ज़ल को वो पहचान दी कि ग़ज़ल नाम हर आमो-खास की ज़बान पर आ गया लेकिन
एक बात और है कि काफी कठिन ग़ज़लें भी इन्होंने कही जिसे समझने के लिए आपको डिक्शनरी देखनी पड़ेगी और गालिब ने भी समय रहते इसे महसूस किया और सादा ज़बान इस्तेमाल की और वही अशआर लोगों ने सराहे जो लोगों की ज़बान मे कहे गए.उस वक्त गा़लिब और मीर की निंदा भी की गई .

कलामे मीर समझे या कलामे मीरज़ा समझे
मगर इनका कहा यह आप समझें या ख़ुदा समझे

गा़लिब ने भाषा मे सुधार भी किया लेकिन गा़लिब भाषा से ऊपर उठ चुका था वो एक विद्वान शायर था.एक बात तो तय है कि भाषा से भाव बड़ा होता है लेकिन भाषा भी सरल होनी चाहिए ताकि लोग आसानी से समझ सकें.

दिल्ली के हालात खराब हुए तो कई शायरों ने लखनऊ का रुख किया.जिनमे मीर और सौदा भी शामिल थे.वहाँ के नवाब ने लखनऊ सकूल की स्थापना की. फिर लखनऊ और दिल्ली दो केन्द्र रहे शायरी के.फिर नाम आता है इमामबख्श नासिख का(1787-1838) लखनऊ से थे और आतिश(1778-1846-लखनऊ)का.ये दोनो शायरों ने खूब नाम कमाया .लखनऊ स्कूल का नाम इन दोनो ने खूब रौशन किया.
नासिख: साथ अपने जो मुझे यार ने सोने न दिया
रात भर मुझको दिल-ए-ज़ार ने सोने न दिया


आतिश: ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते

अमीर मिनाई: (1826-1900 )

सरक़ती जाये है रुख से नक़ाब, आहिस्ता-आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़ताब, आहिस्ता-आहिस्ता

और बहुत से शायर आगे जुड़े जैसे:हातिम अली,खालिक, ज़मीर,आगा हसन, हुसैन मिर्ज़ा इश्क इत्यादि.

उधर दिल्ली मे गा़लिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा दाग ने दिल्ली सकूल को संभाला.यहाँ पर अगर हम दाग़ का ज़िक्र नहीं करेंगे तो सब अधूरा रह जएगा.

मिर्ज़ा दाग (1831-1905) ; मै तो ये मानता हूँ कि दाग़ सबसे अच्छे शायर हुए . उन्होंने ग़ज़ल को फ़ारसी ने निजात दिलाई.इकबाल के उस्ताद थे दाग़.ग़ज़ल को अलग मुहावरा दिया इन्होंने और कई लोग आगे चलकर दाग़ के स्टाइल मे शायरी की.दाग देहलवी एक परंपरा बन गई .1865 मे बहादुर शाह जफ़र की मौत के बाद ये राम पुर चले गए. दिल्ली स्कूल को दाग से एक पहचान मिली ..

रंज की जब गुफ्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी

नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़ुबां आते आते

दाग़ इसीलिए सराहे गए कि वो ग़ज़ल की भाषा को जान गए थे और आम भाषा और सादी उर्दू मे उन्होंनें ग़ज़लें कही, यही एक मूल मंत्र है कि ग़ज़ल की भाषा साफ और सादी होनी चाहिए.

ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई

इस शे'र को पढ़के कोई कया कहेगा कि उर्दू का है या हिंदी का. बस हिंदोस्तानी भाषा मे लिखा एक सादा शे'र है.हिंदी और उर्दू कि बहस यही खत्म होती है कि एक बोली की दो लिपियाँ है देवनागरी और उर्दू.

नया दौर:

अल्ताफ़ हुसैन हाली(1837-1914)पानीपत, दुरगा सहाय सरूर.(1873-1910) और बहुत सारे शायरों ने ग़ज़ल को हम तक पहुँचाया. ये सफ़र खत्म करने से पहले "फ़िराक़ गोरखपुरी (जन्म" 1896 ,निधन: 1982) का ज़िक्र बहुत लाजिमी है.
इनका का असली नाम रघुपति सहाय था । उनका जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिला में हुआ था । वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रध्यापक थे। यहीं पर इन्होंने "ग़ुल-ए-नग़मा" लिखी जिसके लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला । उन्होंनें "भारत सरकार की उर्दू केवल मुसलमानों का भाषा" इस नीति को पुर्जोर विरोध किया। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनको संसद में राज्य सभा का सदस्य मनोनित किया था ।

रस में डूब हुआ लहराता बदन क्या कहना
करवटें लेती हुई सुबह-ए-चमन क्या कहना

शाम-ए-ग़म कुछ उस निगाह-ए-नाज़ की बातें करो
बेख़ुदी बढ़ती चली है राज़ की बातें करो

कूछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़िज़ा, कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो

और आज के दौर के सभी शायर इस विधा को नये आयाम दे रहे हैं. ग़ज़ल अब गुलो-बुलबुल के किस्सों से बाहर आ चुकी है. ग़ज़ल मे अब महिबूब का ही नहीं माँ का भी ज़िक्र होता है, बेटी का भी सो अब ये उन हवेलियों और कोठों से निकल कर घरों मे सज रही है और हिंदी उर्दू का झगड़ा कोई झगड़ा नही है.भाषा और भाव मे भाव बड़ा रहता है लेकिन भाषा की अहमीयत भी अपनी जगह है. ग़ज़ल एक कोमल विधा है यहाँ साँस लेने से सफ़ीने डूब जाते हैं सो ग़ज़ल की नाज़ुक ख्याली का ख्याल रखना पड़ता है. दुश्यंत के इन शब्दों के साथ इस बहस को यहाँ खत्म करता हूँ:
उर्दू और हिन्दी अपने—अपने सिंहासन से उतरकर जब आम आदमी के बीच आती हैं तो उनमें फ़र्क़ कर पाना बड़ा मुश्किल होता है. मेरी नीयत और कोशिश यही रही है कि इन दोनों भाषाओं को ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब ला सकूँ. इसलिए ये ग़ज़लें उस भाषा में लिखी गई हैं जिसे मैं बोलता हूँ.

Thursday, October 8, 2015

काफ़िया शास्त्र


काफ़िया क्या है?
काफ़िया या तुक वो शब्द है जो मतले मे दो बार रदीफ़ से पहले और हर शे’र के दूसरे मिसरे के अंत मे रदीफ़ से पहले आता है.अब ये काफ़िया या तुकबंदी भी आसान काम नही है इसके लिए भी कायदे कानून हैं जिनका ज़िक्र ज़रूरी है.अब दो शब्द आपस मे तभी हम-काफ़िया होंगे अगर उनमे कोई साम्यता होगी.और इसी साम्यता की वज़ह से वो काफ़िया बनेंगे.इसी साम्यता के आधार पर काफ़िये दो तरह के हो सकते हैं :
स्वर साम्य काफ़िये : वो शब्द जिनमे स्वर की साम्यता हो . ऐसे काफ़िये अमूमन उर्दू मे इस्तेमाल किये जाते हैं लेकिन अब हिंदी मे भी ये चलन हो गया है.
मसलन: देखा, सोचा, पाया, आता, पीना,पाला,नाना आदि.
इनमे: स्वर :" आ " की एकता है बस, व्यंजन की नहीं, व्यंजन अलग है सबके जैसे: देखा-सोचा मे ’ख" "च" अलग है इनमे कोई एकता नही.तो ये स्वर साम्य काफ़िये हैं और इनका इस्तेमाल खूब होता है.

न रवा कहिये न सज़ा कहिये
कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये

ये स्वर साम्य है यहाँ "आ" की एकता है व्यंजन "ज" और " र" अलग हैं.
आरजू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई
गर मर्ज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई

"ई" साम्य काफ़िये देखिए द्विज जी की ग़ज़ल से

मिली है ज़ेह्न—ओ—दिल को बेकली क्या
हुई है आपसे भी दोस्ती क्या

कई आँखें यहाँ चुँधिया गई हैं
किताबों से मिली है रौशनी क्या


यहाँ भी स्वर की साम्यता है व्यंजन कि नही.

स्वर और व्यंजन की साम्यता : आब बात आगे बढ़ाते हैं हम काफ़िया शब्दों मे जो व्यंजन रिपीट होता है मसलन:चाल-ढाल-खाल-दाल-डाल इनमे "ल" हर्फ़े-रवि कहलायेगा.जो हर काफ़िये के अंत मे आयेगा.
जैसे द्विज जी के अशआर देखें:

जब भी अपने आपसे ग़द्दार हो जाते हैं लोग
ज़िन्दगी के नाम पर धिक्कार हो जाते हैं लोग

सत्य और ईमान के हिस्से में हैं गुमनामियाँ
साज़िशें बुन कर मगर अवतार हो जाते हैं लोग

उस आदमी का ग़ज़लें कहना क़ुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिसका शऊर होगा

यहाँ "र" हर्फ़े-रवी है.
वास्तव मे काफ़िया या तुक स्वर और व्यंजन की आंशिक एकता से बनते हैं.
इसके बाद बात करते हैं कि -- ग़ज़ल मे मतले मे जो पाबंदी लगा दी जाती है उसे पूरी ग़ज़ल मे निभाना पड़ता है सो जो पाबंदी आप काफ़िये मे लगा लेते हो वो पूरी ग़ज़ल मे निभानी पड़ती है. अब आर.पी शर्मा जी के हवाले से बात आगे बढ़ाते है..
काफ़िये दो तरह के होते हैं या आप यूँ भी कह सकते हैं कि शब्द दो तरह के होते हैं एक विशुद्द और दूसरे योजित. योजित माअने जिनमे कोई अंश जुड़ा हो मसलन:

शुद्द शब्द से योजित शब्द या काफ़िये के उदाहरण:

सरदार से सरदारी (ई) का अंश बढ़ा दिया यहाँ शुद्द शब्द है सरदार और योजित है सरदारी .ऐसे ही:दुश्मन से दुशमनी, यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ.

सर्दी से सर्दियाँ...यहाँ याँ का
गर्मी से गर्मियाँ...यहाँ याँ का
किलकारी से किलकारियाँ....यहाँ याँ का
होशियार से होशियारी....यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
दोस्त से दोस्ती...........यहाँ ई का इज़ाफ़ा हुआ
वफ़ा से वफ़ादार... यहाँ दार का
सितम से सितमगर.....यहाँ गर का.

ऐसे सारे काफ़िये योजित काफ़िये कहलाते हैं जिनमे कुछ अंश जोड़ा गया हो.
शुद्द शब्द तो शुद्द है ही जैसे ज़िंदगी, दोस्त, खुश,खेल आदि.




श्री आर.पी शर्मा जी ने जैसा कहा है कि:

1.पहली शर्त ये है कि मतले मे अगर दोनो काफ़िये योजित हैं तो वो सही काफ़िये इस सूरत मे होंगे कि अगर हम उनके बढ़े हुए अंश निकाल दें तो भी वो आपस मे हम-काफ़िया हों.जैसे:

यँ बरस पड़ते हैम क्या ऐसे वफ़ादारों पर
रख लिया तूने जो अश्शाक को तलवारों पर

नुमाइश के लिए गुलकारियां दोनो तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियां दोनो तरफ़ से हैं.

अब अगर खिड़कियों से तलवारों का कफ़िया बांधेगे तो गल्त हो जाएगा,क्योंकि खिड़की और तलवार से अगर "यां" निकाल दें तो खिड़की और तलवार आपस मे हम काफ़िया नहीं हैं.ऐसे काफ़ियों को मतले मे बांधने से मतला इता दोश युक्त हो जा है.योजित काफ़िये को मतले मे बांधने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिये.अगर मतले मे दोनो काफ़िये योजित रखने हों तो योजित अंश निकालने पर भी शब्द हम-काफ़िया होने चाहिए.जैसे वफ़ादारों और तलवारों मे "ओं" निकाल देने पर भी तलवार और वफ़ादार हम-काफ़िया हैं.

वैसे तो गुलाब और शराब का काफ़िया बांधने पर भी मनाही है लेकिन अहमद-फ़राज़ साहेब कि ग़ज़ल का मतला देखें:

बदन मे आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
कि ज़हरे-ग़म का नशा भी शराब जैसा है.

जब मैने इस बात का ज़िक्र आर.पी शर्मा जी से किया तो उन्होने कहा कि इसके भी आगे भी कई और नियम हैं और बाल की खाल निकालने से कोई फ़ायदा नहीं.सो शायरी मे भी कई घराने हैं जो इता को दोश मानते हैं और कई नही मानते अब मै इस दुविधा मे हूँ कि मै किस घराने से जुड़ूँ.जाने-माने शायर अगर जाने-अनजाने कोई गल्ति करते हैं तो वो आगे जाकर एक नियम बन जाता है.


द्विज जी की ग़ज़ल का मतला देखें:

हज़ूर आप तो पहुँचे हैं आसमानो पर
सिसक रही है अभी ज़िम्दगी ढलानो पर.

यहाँ अगर बढ़े हुए अंश "ओं" को निकाल दें तो आसमान और ढलान हम-काफ़िया हैं.

या फिर एक विशुद्द एक योजित काफ़िया ले लें:जैसे:

है जुस्तज़ू कि खूब से है खूबतर कहाँ
अब ठैरती है देखिए जाकर नज़र कहाँ.

खूबतर योजित है और जाकर शुद्द तो बात बन गई.नही तो इसमे एक और कानून है कि अगर बढ़ा हुआ -काफ़िया नही है लेकिन उनमे व्याकरण भेद है तो वो दोषमुक्त हो जाएंगे.

जैसे : देख मुझको न यूँ दुशमनी से
इतनी नफरत न कर आदमी से

यहाँ पर "ई" दोनो काफ़ियों मे बढ़ा हुआ अंश है और इसे निकाल देने से दुशमन और आदमी हम-आवाज़ या हम-काफ़िया नही है लेकिन दोनो मे व्याकरण भेद है दुशमन भाववाचक है और आदमी जाति वाचक है तो ये सही मतला है.लेकिन अगर ऐसे हो:


आपसे दोस्ती,
आपसे दुशमनी

तो क्योंकि दोनो भाववाचक हैं और बढ़ा हुआ अंश ई’ निकाल देने से हम-काफ़िया नही है सो ये गल्त हो जायेगा.
अब अगर दोनो शुद्द हों तो झगड़ा ही खत्म.

देख ऐसे सवाल रहने दे
बेघरों क ख्याल रहने दे (द्विज)

कुछ और असूल:
1.एक ही शब्द बतौर काफ़िया मतले मे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए बशर्ते कि उनके अर्थ जुदा-जुदा हों. ऐसा करने से काफ़िया रदीफ़ सा बन जाता है.एक शब्द बस इस सूरत मे इस्तेमाल कर सकते हैं जो
उनके अर्थ अलग हों जैसे:
हुई है शाम तो आँखों मे बस गया फिर तू
कहां गया मेरे शहर के मुसाफिर तू.
यहाँ फिर के माने 'बाद' और दूसरे मिसरे मे मुसाफिर का अंश है फिर.जैसे सोना और सोना एक मेट्ल है दूसरा सोना. या फिर जैसे कनक का एक अर्थ धतूरा एक कनक सोना.
अगर आपने काफ़िया "हम" बांधा है और रदीफ़ ’न होंगे" और आपने हम मतले के दोनो मिसरों मे ले लिया तो ये उस ग़्ज़ल का काफ़िया न होकर रदीफ़ बन जायेगा.
हम न होंगे.

लेकिन एक बात बड़ी दिलचस्प है :
अब दिल है मुकाम बेकसी का
यूँ घर न तबाह हो किसी का.
यहाँ ई का काफ़िया है लेकिन व्यंजन "स’ रिपीट हो गया लेकिन क्योंकि काफ़िया स्वर का है इसलिए ये छूट है या फिर शायद कोई और नियम हो.

एक और देखे:बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौंका -बासन चिमटा फुकनी जैसी मां.

यहाँ भी ’नी’ रिपीट हुआ है लेकिन काफ़िया "ई’ का है.

2.कुछ शब्द उच्चारण मे हम आवाज़ लगते हैं लेकिन लिखने मे नही जैसे
पड़ और पढ़, खास और यास, आग और दाग़ इन्हें मलफ़ूज़ी काफ़िये कहते हैं और इस दोष को इक्फ़ा कहते हैं. और उर्दू भाषा मे कुछ शब्द ऐसे है जो लिखे तो एक से जाते हैं लेकिन उच्चारण अलग होता है मसलन
सह’र और स’हर एक का मतलब सुबह अए जादू, सक़फ़ और सक्फ़( सीन, काफ़,फ़े) इनके अर्थ अलग हैं इन्हे मक़तूबी काफ़िये कहते हैं. लेकिन हिंदी मे ये भेद नही है.

3.अगर काफ़िये मे आप खफ़ा, वफ़ा लेते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप अशआर मे नफ़ा आदि लें आप नशा, देखा, सोचा.. ले सकते हैं.
डा॰ इकबाल अपनी एक ग़ज़ल में लाये हैं,फिर चिराग़े-लाल से रौशन हुए कोहो-दमन
मुझको फिर नग्मों पे उकसाने लगा मुर्गे-चमन।
मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं
तन की दौलत छाँव है, आता है धन जाता है धन।

यहाँ इकबाल जी ने च+मन और द+मन मतले मे बांधे लेकिन आगे जाके ये बंधिश तोड़ दी .इसे" धन" कर दिया तो ये छूट है:ये उदाहरण श्री आर पी शर्मा जी ने खोजी है.

4. एक और कमाल देखें
पुरखों की तहज़ीब से महका बस्ता पीछे छूट गया
जाने किस वहशत मे घर का रस्ता पीछे छूट गया.

यहाँ पर रस्ता , बस्ता काफ़िये मतले मे बांधे और इसके हिसाब से आगे.. सस्ता, या खस्ता आदि आने चाहिए लेकिन..
अहदे-ज़वानी रो-रो काटा मीर मीयां सा हाल हुआ
लेकिन उनके आगे अपना किस्सा पीछे छूट गया.

ये सब चलता है.
5. अगर आप मतले मे कामिल और शामिल का काफ़िया बांधा है तो आगे आपको शामिल, आमिल आदि बांधने पड़ेंगे कातिल गल्त हो जायेगा. सो ये सब है ...लेकिन द्विज जी की एक बात से इस बहस को यहीं विराम देता हूँ कि शायरी मे कुछ भी हर्फ़े-आखिर नही होता. लकीर के फ़कीर होना भी सही नही लेकिन इल्म लाज़िम है.

अपना एक मतला पेश करता हूँ और खत्म करता हूँ

तालिबे-इल्म हूँ हर्फ़े-आखिर नही हूँ मैं
फ़न से वाकिफ़ तो हूँ फ़न मे माहिर नहीं हूँ मैं ...सतपाल ख़याल

Wednesday, October 7, 2015

बहरें और उनके उदाहरण



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बहरें और उनके उदाहरण

आठ बेसिक अरकान:
फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
फ़-ऊ-लुन(1-2-2)
***

फ़ारसी मे 18 बहरें:

1.मुत़कारिब(122x4) चार फ़ऊलुन
2.हज़ज(1222x4) चार मुफ़ाईलुन
3.रमल(2122x4) चार फ़ाइलातुन
4.रजज़:(2212) चार मसतफ़इलुन
5.कामिल:(11212x4) चार मुतफ़ाइलुन
6 बसीत:(2212, 212, 2212, 212 )मसतलुन फ़ाइलुऩx2
7तवील:(122, 1222, 122, 1222) फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन x2
8.मुशाकिल:(2122, 1222, 1222) फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
9. मदीद : (2122, 212, 2122, 212) फ़ाइलातुन फ़ाइलुनx2
10. मजतस:(2212, 2122, 2212, 2122) मसतफ़इलुन फ़ाइलातुनx2
11.मजारे:(1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
12 मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221) मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
13 वाफ़िर : (12112 x4) मुफ़ाइलतुन x4 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
14 क़रीब ( 1222 1222 2122 ) मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
15 सरीअ (2212 2212 2221) मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
16 ख़फ़ीफ़:(2122 2212 2122) फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में .
17 जदीद: (2122 2122 2212) फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
18 मुक़ातज़ेब (2221 2212 2221 2212) मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
19. रुबाई
***
1.बहरे-मुतका़रिब:
1.मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम
(चार फ़ऊलुन )
*सितारों के आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहां और भी हैं.
*कोई पास आया सवेरे-सवेरे
मुझे आज़माया सवेरे-सवेरे.
ये दोनों शे'र बहरे-मुतकारिब में हैं और ये बहुत मक़बूल बहर है. बहर का सालिम शक्ल में इस्तेमाल हुआ है यानि जिस शक्ल में बहर के अरकान थे उसी शक्ल मे इस्तेमाल हुए.ये मसम्मन बहर है इसमे आठ अरकान हैं एक शे'र में.तो हम इसे लिखेंगे: बहरे-मुतका़रिब मफ़रद मसम्मन सालिम.अगर बहर के अरकान सालिम या शु्द्ध शक्ल में इस्तेमाल होते हैं तो बहर सालिम होगी अगर वो असल शक्ल में इस्तेमाल न होकर अपनी मुज़ाहिफ शक्ल में इस्तेमाल हों तो बहर को मुज़ाहिफ़ कह देते हैं.सालिम मतलब जिस बहर में आठ में से कोई एक बेसिक अरकान इस्तेमाल हुआ हो. हमने पिछले लेख मे आठ बेसिक अरकान का ज़िक्र किया था जो सारी बहरों का आधार है.मुज़ाहिफ़ मतलब अरकान की बिगड़ी हुई शक्ल.जैसे फ़ाइलातुन सालिम शक्ल है और फ़ाइलुन मुज़ाहिफ़. सालिम शक्ल से मुज़ाहिफ़ शक्ल बनाने के लिए भी एक तरकीब है जिसे ज़िहाफ़ कहते हैं.तो हर बहर या तो सालिम रूप में इस्तेमाल होगी या मुज़ाहिफ़ मे, कई बहरें सालिम और मुज़ाहिफ़ दोनों रूप मे इस्तेमाल होती हैं. अरकानों से ज़िहाफ़ बनाने की तरकीब बाद में बयान करेंगे.हम हर बहर के मुज़ाहिफ़ और सालिम रूप की उदाहरणों का उनके गुरु लघू तरकीब से , अरकानों के नाम देकर समझेंगे जो मैं समझता हूँ कि आसान होगा , नहीं तो ये खेल पेचीदा हो जाएगा.
बहरे-मुतका़रिब मुज़ाहफ़ शक्लें:
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ (फ़ऊ या फ़+अल)
122 122 122 12
गया दौरे-सरमायादारी गया
तमाशा दिखा कर मदारी गया.(इक़बाल)
दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले.(मीर)(ये महज़ूफ ज़िहाफ़ का नाम है)
नबर दो:
फ़ऊल फ़ालुन x 4
121 22 x4
(सौलह रुक्नी)
ज़ेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियाँ
कि ताब-ए-हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाये छतियाँहज़ार राहें जो मुड़के देखीं कहीं से कोई सदा न आई.

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बड़ी वफ़ा से निभाई तूने हमारी थोड़ी सी बेवफ़ाई.नंबर तीन:फ़ऊल फ़ालुन x 2
121 22 x 2
वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था.
हवाओं का रुख दिखा रहा था.
नंबर चार:फ़ालुन फ़ऊलुन x2
22 122 x2
नै मुहरा बाक़ी नै मुहरा बाज़ी
जीता है रूमी हारा है काज़ी (इकबाल)
नंबर पाँच:
फ़ाइ फ़ऊलुन
21 122 x 2
सोलह रुक्नी
21 122 x4
नंबर छ:22 22 22 22
चार फ़ेलुन या आठ रुक्नी.
इस बहर में एक छूट है इसे आप इस रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं.
211 2 11 211 22
दूसरा, चौथा और छटा गुरु लघु से बदला जा सकता है.
एक मुहव्ब्त लाख खताएँ
वजह-ए-सितम कुछ हो तो बताएँ.
अपना ही दुखड़ा रोते हो
किस पर अहसान जताते हो.(ख्याल)
नंबर सात:(सोलह रुक्नी)
22 22 22 22 22 22 22 2(11)
यहाँ पर हर गुरु की जग़ह दो लघु आ सकते हैं सिवाए आठवें गुरु के.
* दूर है मंज़िल राहें मुशकिल आलम है तनहाई का
आज मुझे अहसास हुआ है अपनी शिकस्ता पाई का.(शकील)
* एक था गुल और एक थी बुलबुल दोनों चमन में रहते थे
है ये कहानी बिल्कुल सच्ची मेरे नाना कहते थे.(आनंद बख्शी)
* पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है.(मीर)
और..
एक ये प्रकार है
22 22 22 22 22 22 22
इसमे हर गुरु की जग़ह दो लघु इस्तेमाल हो सकते हैं.
नंबर आठ:
फ़ालुन फ़ालुन फ़ालुन फ़े.
22 22 22 2
अब इसमे छूट भी है इस को इस रूप में भी इस्तेमाल कर सकते हैं
211 211 222
* मज़हब क्या है इस दिल में
इक मस्जिद है शिवाला है
अब मुद्दे की बात करते हैं आप समझ लें कि मैं संगीतकार हूँ और आप गीतकार या ग़ज़लकार तो मैं आपको एक धुन देता हूँ
जो बहरे-मुतकारिब मे है. आप उस पर ग़ज़ल कहने की कोशिश करें. इस बहर को याद रखने के लिए आप चाहे इसे :
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
(122 122 122 122)
या
छमाछम छमाछम छमाछम छमाछम
या
तपोवन तपोवन तपोवन तपोवन
कुछ भी कह लें महत्वपूर्ण है इसका वज़्न, बस...
1.बहरे- मुत़कारिब
(122x4)
(चार फ़ऊलुन )एक बहुत ही मशहूर गीत है जो इस बहर मे है वो है.
अ- के ले- अ -के -ले क- हाँ जा- र- हे -हो
(1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2)
मु- झे सा- थ ले -लो य -हाँ जा र -हे हो.
(1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2 2)
2 .
हज़ज मसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन(1222x4)
ये सबसे मक़बूल और आसान बहर है.शायर इस बहर से ही अमूमन लिखना सीखता है.
उदाहरण:
अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नही होते
यहाँ के लोग अपने आप मे सरहद नहीं होते(द्विज)
हज़ारों ख्वाहिशे ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.(गा़लिब)
नुमाइश के लिए गुलकारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
लड़ाई की मगर तैयारियाँ दोनों तरफ़ से हैं
मै शायर हूँ ज़बां मेरी कभी उर्दू कभी हिंदी
कि मैने शौक़ से बोली कभी उर्दू कभी हिंदी( सतपाल ख्याल)2 हज़ज मसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ मक़सूर महज़ूफ़:
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़लुन या मफ़ाईल
22 11 22 11 22 11 2 2 (1)
या यूँ 22 11 22 11 22 11 22
उदाहरण:
गो हाथ मे जुंबिश नहीं हाथों मे तो दम है
रहने दो अभी साग़रो-मीना मेरे आगे.(गालिब)
रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिए से मुझे छोड़के जाने के लिए आ.( फ़राज़)
अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिये हैं
कुछ शे'र फ़कत तुमको सुनाने के लिए हैं.( जां निसार अखतर)
3 हज़ज मसम्मन मक़बूज़:
मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन
1212 X4
ये बहुत ही सुंदर बहर है.
उदाहरण:
*सुना रहा है ये समां सुनी -सुनी सी दास्तां.
* जवां है रात साकिया शराब ला शराब ला.
* अभी तो मै जवान हूँ, अभी तो मै ज़वान हूँ.
4.हज़ज मसम्मन अशतर:
फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन फ़ाइलुन मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
उदाहरण:
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयान अपना
बन गया रक़ीब आखिर था जो राज़दाँ अपना.(गालिब)
5.हज़ज अशतर मक़बूज़:
फ़ाइलुन मफ़ाइलुन फ़ाइलुन मफ़ाइलुन
212 1212 212 1212
6.हज़ज मुसद्द्स मक़सूर महज़ूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
उदाहरण:
*तेरे बारे मे जब सोचा नहीं था
मै तनहा था मगर इतना नही था.
*अकेले हैम चले आऒ कहाँ हो
कहाँ आवाज़ दें तुमको कहाँ हो.
* मुसाफिर चलते-चलते थक गया है
सफर जाने अभी कितना पड़ा है.
* दरीचा बेसदा कोई नही है
अगरचे बोलता कोई नहीं है
7.मुसद्दस अख़रब मक़बूज़ मक़सूर महज़ूफ़ :
मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
222 212 122
या 2211 212 122
मिलती है ज़िंदगी कहीं क्या...
8. हज़ज मसम्मन अखरबमफ़ऊल मुफ़ाईलुन मफ़ऊल मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
उदाहरण:
*हंगामा है क्योम बर्पा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नही डाला चोरी तो नहीं की है.( अकबर अलाहाबादी)
3.बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम:फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन(212 212 212 212 )
उदाहरण:
या ख़ुदा तुम रखो अब मेरी आबरू
ग़श न आए मुझे जब वो हों रूबरु.
आपको देखकर देखता रह गया
क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया.
दौड़ती भागती सोचती ज़िंदगी
हर तरफ़ हर ज़गह हर गली ज़िंदगी.( ख्याल)
हर तरफ़ हर ज़गह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी.
सौलह रुक्नी:
212 x8
मसद्दस:
फ़ाइलुन X 3उदाहराण:
आज जाने की ज़िद न करो
यूँ ही पहलू मे बैठे रहो.
सारे सपने कहीं खो गए
हाय हम क्या से क्या हो गए.
तुम ये कैसे जुदा हो गए
हर तरफ़ हर ज़गह हो गए.
मुज़ाहिफ़ शक्लें:
1.फ़ालुन फ़ालुन फ़ालुन फ़ालुन22 x4
ये तरक़ीब मुतकारिब मे भी आती है.
2.फ़'इ'लुन .फ़'इ'लुन .फ़'इ'लुन .फ़'इ'लुन112 x4
और 112x8.
बहुत कम इस्तेमाल होता है
.
3.फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ा और फ़'212 212 212 2 (1)
किस के ख्वाबे-निहां से है आई
गुलबदन तू कहाँ से है आई.
4.फ़ाइलुन फ़'इल फ़ाइलुन फ़'इल
212 12 212 12
5. 22 x 8 या 112x 8
***
4.
बहरे-रमल( मसम्मन सालिम)1.फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
2122 x4
( बहुत कम इस्तेमाल होती है )
मुज़ाहिफ़ शक्लें:1.फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
सबसे आसान और मक़बूल बहर है.हर शायर इस्तेमाल करता है.
उदाहरण:
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल मे है
देखना है जोर कितना बाज़ु-ए-कातिल मे है.
हो गई है पीर परबत सि पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए.(दुशयंत)
आपकी कश्ती मे बैठे ढूँढते साहिल रहे
सरफ़रोशी का वो जज़्बा अब भि अपने दिल मे है
खौलता है खून हरदम चुप नहीं बैठेंगे हम.( ख्याल)
चुपके-चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है.
2.फ़ाइलातुन .फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
(2122 2122 212 )
उदाहरण:
रंज़ की जब ग़ुफ़्तगू होने लगी
आप से तुम तुम से तू होने लगी.कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जि मे हमने ठानी और है.
जब सफ़ीना मौज़ से टकरा गया
नाख़ुदा की भी खु़दा याद आ गया.
दिल गया तुमने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें.3.
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़'लान(फ़ालुन)
2122 1122 1122 112
या
2122 1122 1122 22
उदाहरण:
मुझसे मिलने को वो करता था बहाने कितने
अब ग़ज़ारेगा मेरे साथ ज़माने कितने.
अपनी आँखों के समंदर मे उतर जाने दे
तेरा मुज़रिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे.
रस्मे-उल्फ़त को निभाएँ तो निभाएँ कैसे
हर तरफ़ आग है दामन को बचाएँ कैसे
मुझको इस रात की तनहाई मे आवाज़ न दो
जिसकी आवाज़ रुलादे मुझे वो साज़ न दो.
इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाउंगा...
4. बहरे-शिकस्ता.फ़'इ'लात फ़ाइलातुन फ़'इ'लात फ़ाइलातुन
1121 2122 1121 2122
उदाहरण:
ये न थी हमारी किस्मत कि विसाले यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता.
5. बहरे-मज़ारे: मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2
(1222, 2122, 1222, 2122) सालिम शक्ल मे इसका इस्तेमाल नही होता .
सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
मुज़ाहिफ़ शक्लें:
1. फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन
2212 122 2212 122
उदाहरण:
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलसितां हमारा
मत ज़िक्र कर तू सबसे मत पूछ हर कि्सी को
ज़ख्मों का तेरे मरहम मालूम है तुझी को.(ख्याल)
मुझको बता कि मैने ये क्या गुनाह किया है
चाहा है दिल तुमारा तुमको जो दिल दिया है.(रौशन)
2. मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
उदाहरण:
मुद्द्त हुई है यार को महमां किये हुए
जोशे क़दा से बज़्म चरागां किए हुए.
आई हयात आए कज़ा ले चली चले
अपनि खुशि से आये न अपनि खु्शी चले.
वो और हैं जो मरते हैं बस देखकर तुझे
आशिक तो मै हूँ जो बिना देखे जीया नही.
जिस तरह हस रहा हूं मै पी-पी के अशके-ग़म
यूँ दूसरा हसे तो कलेजा निकल पड़े.( कैफ़ी आज़मी)
6.बहरे-रजज़ :मसम्मन सालिम
मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मसतफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
उदाहरण:
ये दिल ये पागल दिल मेरा क्यों बुझ गया आवारगी
इस दश्त मे इक शहर था वो क्या हुआ आवारगी.
ऐ मुझ से तुझ को सौ मिले तुझ सा न पाया एक मै
सौ- सौ कही तूने मगर मुंह पर न लाया एक मै.
मुजाहिफ़ शक्लें:
नं: 1.
मुफ़’त’इ’लुन म’फ़ा’इ’लुन मुफ़’त’इ’लुन म’फ़ा’इ’लुन
2 11 2 1212 2112 1212
उदाहरण:
दिल ही तो है न संगो-खिश्त दर्द से भर न पाये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमे सताए क्यों,
शामे-फ़िराक अब ना पूछ आई और आके टल गई
दिल था कि फ़िर बहल गया जां थी कि फिर संभल गई.
नं:2.
मफ़’त’इ’लुन मफ़’त’इ’लुन मफ़’त’इ’लुन मफ़’त’इ’लुन
2112 2112 2112 2112
उदाहरण:
आज हो तौफ़ीके-मुलाकात तो कुछ बात बने
आएँ लबों तक मेरे जज़्बात तो कुछ बात बने.
* 7. बहरे-मजतसइस बहर की मुज़ाहिफ़ शक्लें ही इस्तेमाल होती हैं.सालिम का इस्तेमाल नहीं होता. इसके सालिम अरकान हैं: (1222, 2122, 1222, 2122) मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुनx2
मुज़ाहिफ़ शक्लें:
1. म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
उदाहरण:
सुना है लूट लिया है किसी को रहबर ने
ये वाक्या तो मेरी दास्तां से मिलता है.(22)
गज़ब किया तिरे वादे पे ऐतबार किया
तमाम रात कयामत का इंतज़ार किया.(112)
वो मै नही था जो इक हर्फ़ भी न कह पाया
वो बेबसी थी कि जिसने तेरा सलाम लिया.
करूँ न याद उसे किस तरह भूलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे.
हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्या है
तुमी कहो कि ये अंदाज़े-गुफ़्तगू क्या है.
**वो चीज़ जिस के लिए हमको हो बहिशत अज़ीज
1212 1122 1212 112
सिवाए वाद-ए-गुलफ़ामे-मिशकबू क्या है.
1212 1122 1212 22.
अंत मे 112 or 22 का इस्तेमाल हो सकता है.
आखिरी रुक्न 22 कि वजाए112/ 212/ 221/ 1121 मे से कोई भी हो सकता है.
नं: 8 बहरे-मुंसरेह :
मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत ही इस्तेमाल होती है.
(2212, 2221, 2212, 2221)
मुज़ाहिफ़ शक्लें:
1.मुफ़'त'इ"लुन फ़ा'इ'लुन(फ़ा'इ'ला'त) मुफ़'त'इ'लुन फ़ा'इ'लुन(फ़ा'इ'ला'त)
2112 212 (2121) 2112 212(2121)
उदाहरण:
सिलसिला-ए-रोज़ो-शब नक्शबारे-हादिसात
सिलसिला-ए-रोज़ो शब अस्ले-हयातो-मुमात (Iqbal)
2. मुफ़'त'इ'लुन फ़ा'इ'लात मुफ़'त'इ'लुन फ़े या फ़ा
2112 2121 2112 1 or 2.
उदाहरण:
आ के मेरी जान को करार नही है.
ताकते-बेदादे-इंतज़ार नही है.
3. मुफ़’त’इ’लुन फ़ाइलुन मुफ़’त’इ’लुन फ़ या फ़ा
2112 212 2112 1or 2
बहर नंबर: 9मुक़ातज़ेब
मफ़ऊलात मसतफ़इलुनx2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरतें इस्तेमाल होती है.
(2221 2212 2221 2212)
मुज़ाहिफ़ सूरतें :
न:1
फ़ा’इ’ला’त मुफ़’त’इ’लुन फ़ा’इ’ला’त मुफ़’त’इ’लुन
2121 2 11 2 2121 211 2
बहुत कम इस्तेमाल होती है.
न: 2
फ़ा’इ’ला’त मफ़’ऊ’लुन फ़ा’इ’ला’त मफ़’ऊ’लुन
2121 222 2121 222
उदाहरण:
ज़िक्र उस परीवश का और फिर बयां अपना
बन गया रक़ीब आखिर था जो राज़दां अपना.
बहर न>10: बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन फ़ाइलातुन
(2122 2212 2122)
सालिम रूप मे इस्तेमाल नही होती.सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ शक्लें इस्तेमाल होती हैं.
मुज़ाहिफ़ शक्लें:सिर्फ़ मुसद्दस शक्ल इस्तेमाल होती है.
न:1
फ़ा’इ’ला’तुन (फ़’इ’ला’तुन) म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन(फ़’इ’ला’न)
2122 (1122) 1212 22 (1121)
यानि ये बहर नीचे दिए दोनो प्रकार से इस्तेमाल हो सकती है.
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22 ) ,
फ़’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़’इ’ला’न
( 1122 1212 1121)
उदाहरण:
इब्ने मरीयम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई.
जल बोझी शमा रौशनी के लिए
ये भी जीना हुआ किसी के लिए.
हर हक़ीकत मजाज़ हो जाए
काफ़िरों की नमाज़ हो जाए.
दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है.गा़लिब के इस शे’र मे पहले मिसरे मे(दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है)
1122 1212 22
और दूसरे मे
2122 1212 22
का इस्तेमाल हुआ है.
नंबर: 11::बहरे-तवील:
फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन मुफ़ाईलुन
122, 1222, 122, 1222
सालिम शक्ल का ही इस्तेमाल होता है केवल.
बहुत कम इस्तेमाल होती है लेकिन एक मिसरा लिखने की कोशिश कर रहा हूँ.
सिर्फ़ समझने के लिए.
*कहो क्या है उस ज़ानिब ,चलो उस तरफ यारो.
**
बहर न:12:
बहरे-मदीद :मसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन फ़ाइलुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
(2122, 212, 2122, 212)
सिर्फ़ सालिम शक्ल मे इस्तेमाल होती है लेकिन बहुत कम.
एक मिसरा कहने की कोशिश कर रहा हूँ:
आशिकी है ज़िंदगी ज़िंदगी है आशिकी.
न:13
बहरे-बसीत:मसतलुन फ़ाइलुऩ मसतलुन फ़ाइलुऩ
(2212, 212, 2212, 212 )
सालिम शक्ल मे ये इस्तेमाल नही होती सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ शक्लें इस्तेमाल होती है.
लेकिन बहुत कम.
मुज़ाहिफ़ शक्ल:
1.मुफ़’त’इ’लुन फ़ा’इ’लुन .मुफ़’त’इ’लुन फ़ा’इ’लु्न
2112 212 2112 212
एक मिसरा कहने कि कोशिश करता हूँ सिर्फ़ समझने के लिए:
दिल ने कहा सच जिसे हमने कहा सच उसे.
न:14
बहरे-कामिल:(मसम्मन सालिम)ये मसद्दस शक्ल मे कम इस्तेमाल होती है.
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
(11212x4)
ये सालिम रूप मे इस्तेमाल होती है.
उदाहरण:
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
*11212 11212 11212 11212
वो जो हम मे तुम मे करा था तुझे याद हो कि न याद हो.
वो ही यानि वादा निबाह का तुझे याद हो कि न याद हो.
मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा मुझे दोस्त बनके दगा न दे
मैं हूँ दर्दे-इशक से जां-बलब मुझे ज़िंदगि कि दुआ न दे.न:15
बहरे- वाफ़िर :मुफ़ाइलतुन मुफ़ाइलतुन मुफ़ाइलतुन मुफ़ाइलतुन
(12112 x4)
सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ शक्ल इस्तेमाल होती है.न के बराबर इस्तेमाल होता है.
एक मिसरा कहने की कोशिश करता हूँ:
*कहाँ तू सनम कहाँ मै सनम कहा मैने क्या सुना तूने क्या.
16.बहरे-सरीअमसतफ़इलुन मसतफ़इलुन मफ़ऊलात
2212 2212 2221
सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत इस्तेमाल होती है.
मुजाहिफ़ शक्ल:
मफ़’त’इ’लुन (मफ़’ऊ’लुन) मफ़’त’इ’लुन (मफ़’ऊ’लुन) फ़ा’इ’लुन( फ़ा’इ’लात)
2112 (222) 2112 (222) 212 (2121)
*मफ़’त’इ’लुन की जगह मफ़ऊलुन और फ़ाइलुन की जगह फ़ाइलात इस्तेमाल करने की छूट है.
उदाहरण:
दारस-ए-मुल्क अस्त मुहम्मद हाकिम
बिस्मिलाह इर-रहमान अर-रहीम.
17
बहरे-जदीद:फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन मसतफ़इलुन
(2122 2122 2212)
सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में इस्तेमाल होती है:
1.फ़’इ’ला’तुन फ़’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन
11 22 1122 1212
इस्तेमाल नही होती.
एक मिसरा लिखने की कोशिश करता हूँ
**न कहो कुछ, न सुनो कुछ ,न सहो कुछ
18. बहरे-क़रीबमुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलातुन
( 1222 1222 2122 )
सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में इस्तेमाल होती है.
मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म’फ़ा’ई’ल म’फ़ा’ई’ल फ़ाइलातुन
1221 1221 2122
फ़ारसी मे ज़्यादा इस्तेमाल होती है.
एक मिसरा समझने के लिए
कहो कु्छ तो सुनो कुछ तो ज़िंदगी है.
19.
बहरे-मुशाकिल
सालिम शक्ल इस्तेमाल नही होती और ये उर्दू मे इस्तेमाल नही होता.
मुज़ाहिफ़ शक्ल:
फ़ा'इ'लात मु'फ़ा'ई'ल मु'फ़ा'ई'ल
2121 1221 1221
एक मिसरा कहने की क ओशिश कर रहा हूँ सिर्फ़ समझने के लिए
ज़िंदगी ये मिरी शूल सी बिन तेरे

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